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किरण ११-१२]
किया गया है वह वसुनंदी आदिके कथनॉमे अविक और विशिष्ट है । इस विधानसे और द्विष्टश्रा के लिए जो मुनियोंके अनुमार्ग मे चर्याको जानेका विधान है उसमे ऐसी ध्वनि निकलती है कि पं० वामदेवने प्रथमोत्कृष्ट श्रावकके एक भिक्षा नियम और अनेक भिक्षा नियम नामके दो भेद नहीं किये; बल्कि प्रथमोत्कृष्ट श्रावकको अनेक भिक्षा-नियम और द्वितीयोकृष्ट श्रावकको एक भिक्षा-नियम में रक्खा है। साथ ही, इस प्रतिमा धारीको रहस्य और सिद्धान्तमथोंके अध्ययनका अधिकारी न बतलाकर उनके सुनने ( तक ) का अनधिकारी बतलाया हैं, यह विशिष्टता है ।
(१०) ब्रह्मनेमिदत्त, जिन्होंने वि० सं० १५-५ मे श्रीपाल चरित्रकी रचना की है, अपने 'धर्मोपदेश पीयूपवर्ष' नामके श्रावकाचारमं, इस प्रतिमाके दाभेद करते हुए लिखते है कि
तस्य भेदद्वयं प्राहुरेकवस्त्रधरः सुवोः । प्रथमोऽमौ द्वितीयस्तु यती कौपीनमात्र भाक् || २७०|| यः कौपीनधरो गत्रिप्रतिमायोगमुत्तमं । करोति नियमेनोच्चैः सदासौ धीरमानसः || २७१ ।। लोच विच्छच सत्ते भुक्तेऽसौ चोपविश्य वै । पाणिपात्रेण पूतात्मा ब्रह्मचारी स चोत्तमः || २७२|| कृतकारितं परित्यज्य श्रावकानां गृहे सुधी. । उद्दण्डमिक्षया भुक्ते चैकवारं संयुक्तितः ॥ २७३॥ त्रिकालयोगे नियमो वीरचर्या च सर्वथा । सिद्धान्ताध्ययनं सूर्यप्रतिमा नान्ति तम्य वे ॥ २७४ ॥
अर्थात् - इस प्रतिमा के दो भेद इस प्रकार है— पहला एक वस्त्रका धारक, जिले 'सुवी' कहते हैं, दूसरा कोपीन मात्रका धारक, जिसे 'यती' कहते है । जो कौपीन मात्रका धारक है वह धीरमानस, पवित्रात्मा, नियमसे उत्तम रात्रिप्रतिमायोग किया करता केशलोंच करता है, पिच्छी रखता है, बैठकर करपात्र में आहार करता है और उत्तम ब्रह्मचारी होता है । और 'सुधी' नामका श्रावक * यह हस्तलिखित प्रथ देवली के नये मंदिरके भंडार में मौजूद हैं।
ऐलक-पद-कक्षपना
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कृतकारित दोषको छोड़कर उद्दढ भिक्षाके द्वारा, श्रावकों के घरपर, एक बार युक्तिपूर्वक भोजन किया करता है। उसके त्रिकालयोगका नियम नहीं और वीरचर्या, सिद्धान्ताध्ययन तथा सूर्य प्रतिमा का सर्वथा निषेध है ।
यहाँ इस प्रतिमाधारीके दो भेद करके उन भेदोंक जो 'सुधी' और 'यती' दो नाम दिये गये हैं, वे ऊपरके सभी विद्वानोंके कथनोंसे विभिन्न है । और सुधी ( प्रथमोत्कृष्ट ) श्रावकके लिए कृतकारित दोपको टालनेका जो विधान किया गया है, वह इस बातको सूचित करता है कि ब्रह्मनेभिदत्तक मतानुसार उसका भोजन स्वामिकार्तिकेय तथा अमितगत्यादिके अनुसार नवकोटिविशुद्ध होता है । अस्तु, ब्रह्मनेमिदत्तने इस प्रतिमाधारीके लिए 'सुवी' और 'यती' नामके दो नये नामका विधान करनेपर भी 'ऐलक' नामका कोई निर्देश नहीं किया. यह स्पष्ट है। साथ ही यह बात भी किसीसे छिपी नहीं है कि 'यति' अथवा 'यती' नाम जैन समाजमें, महाव्रती के लिए रूढ है और इस यतिपदकी प्राप्ति ग्यारहवीं प्रतिमाका उल्लंघन कर जानेके बाद होती है। श्रीसोमदेवसूरिके निम्न वाक्यसे भी यही पाया जाता है
पडत्र गृहिणो ज्ञेयास्त्रयः स्युत्रह्मचारिणः । भिक्षुकौ द्वौ तु निर्दिष्ट ततः स्यात्पर्वतो यति ॥ - यशस्तिलक इस वाक्य में यह बतलाया गया है कि श्रावककी ११ प्रतिमाओं में से पहले छह 'गृहस्थ' मध्यके तीन 'ब्रह्मचारी' और अन्तके दो 'भिक्षुक' कहलाते हैं और इसके बाद 'यति' संज्ञा होती है। यह दूसरी बात है कि श्रावकको 'देशयनि' भो कहते हैं । परन्तु यह संज्ञा सभी दर्जे के श्रावकों के लिये व्यवहृन होतो है । खालिस 'यति' संज्ञाका प्रयोग श्राम तौरसे महात्रती साधुओं के लिए हो पाया जाता है।
ॐ यह यतिन् शब्दकी प्रथमा विभक्ति एकवचनका रूप है।
★ यथा - "तथ्य देशयतीनां द्विधं मृलोत्तरगुणाभ्रयणात्" - यशस्तिलकः ।