________________
अनेकान्त
३६६
फिर भी यहाँ देशव्रतीके लिए 'यती' संज्ञाका व्यवहार किया गया है, यह एक खास बात है, और इसमें कोई गुप्त रहस्य जरूर है । संभव श्वेताम्बर यतियोंके पदस्थको लक्ष्य करके ही यहाँ इस संज्ञाका प्रयोग किया गया हो ।
कि
(१३) श्रीसोमदेव सूरि के ऊपर उद्धृत किये हुए atree पाठकों को यह भी मालूम होगा कि इस ११ वीं प्रतिमाधारीको 'भिक्षुक' भी कहते हैं । यद्यपि जैनधर्ममें 'भिक्षुक' नामका एक जुदा हो आश्रम माना गया है । जो कि अन्तिम आश्रम है और जिसे सन्यस्त आश्रम भी कहते है । और इस लिए 'भिक्षुक' एक मुनिकी या महात्रती साधुकी संज्ञा है; परन्तु सोमदेवसूरिने ११ वीं प्रतिमाधारी को भी इस नामसे उल्लेखित किया है और साथ ही १०वीं प्रतिमावालेके लिए भी इसी संज्ञाका प्रयोग किया है ।
ऐसी हालत में यह एक प्रकार की सामान्य संज्ञा होजाती है और उससे ११ वीं प्रतिमावाले का ही खास तौर से कुछ बोध नहीं हो सकता । परन्तु खास तौर से बोध होसके या न होसके इतना जरूर मानना पड़ेगा कि शास्त्रमें ११ वीं प्रतिमावाले के लिए 'भिक्षुक' संज्ञा भी बहुत पहलेसे चली आती है, क्योंकि यशस्तिलक ग्रंथ शक सं० ८८१ (वि० सं० २०१६) में बनकर समाप्त हुआ है और उसमें उक्त संज्ञाका निर्देश है।
+ यथा - ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः । इत्याश्रमास्तु जैनानामुत्तरोत्तरोत्तरशुद्धितः ॥
- श्रादिपुराणे श्रीजिनसेनः ।
+ पं० श्राशावर और पं० मेधावीने भी इस विषय में सोमदेवसूरिका अनुसरण किया है और १० वीं तथा ११ थीं दोनों ही प्रतिमावालोंको 'भिक्षुक' लिखा है। यथाअनुमतिविरतोद्दिष्टविरतावुभौ भिक्षुको प्रकृष्टौ च ।
- सागारधर्मामृत
"उत्कृष्टौ भिक्षुको परौ" - धर्मसंप्रहश्रावकाचारः
[ वर्ष १० यहाँ पर हमारे कितने ही पाठक यह जानने के लिए जरूर उत्कण्ठित होंगे कि श्रीसोमदेव सूरिने ११ वीं प्रतिमा का क्या स्वरूप वर्णन किया है। परन्त हमें खेद के साथ लिखना पड़ता है कि यशस्तिक नामके आपके प्रधान प्रथमें, जिसमें उपासकाध्ययनक
बहुत कुछ लम्बा चौड़ा वर्णन है, हमें इस प्रतिमाका कोई खास स्वरूप उपलब्ध नहीं हो सका । हाँ, एक स्थानपर ११ प्रतिमाओंके नाम जरूर मिले हैं। परन्तु नाम कितने ही अंशों में इतने विलक्षण है। और उनका क्रन भी इतना विभिन्न है कि वे दोनों ( नाम और क्रम ) ऊपर उल्लेख किये हुए आचार्यों तथा विद्वानोंके कथनसे मेल नहीं खाते । यथा
मूलव्रतं व्रतान्यर्चा पर्व मी कृषिक्रिया । दिवा नवविधं ब्रह्म सचित्तस्य विवजेनम् ॥ परिग्रहपरित्यागो भुक्तिमात्रानुमान्यता | तद्धानौ च वदन्त्येतान्येकादश यथाक्रमं । अवधित्रतमारोहेत्पूर्वपूर्व व्रतस्थितः । सर्वत्रापि समाः प्रोक्ता ज्ञानदर्शनभावनाः ॥ - आश्वास नं० ८
इन पर्थो में १ मुलवत, २ बतानि, ३ अर्चा, ४ पर्वकर्म, ५ अकृषि क्रिया. ६ दिवाब्रह्म, ७ नवविधत्रह्म ८ सचित्तविवर्जन, ६ परिग्रह-परित्याग, १० भुक्तिमात्राहानि और ११ अनुमान्यवाहानि, ऐसी ग्यारह प्रतिमाओंके नाम दिये हैं और उनका यही क्रम निर्दिष्ट किया है। साथ ही, यह भी बतलाया है कि इन सभी प्रतिमाओं मे ज्ञानदर्शनकी भावनाएं समान हैं और पूर्व पूर्व व्रतस्थित (प्रतिमाधारी) को चाहिये कि वह अवधिव्रतको आरोहण करे । परन्तु अवधिव्रतको आरोहण करना क्या है, यह कुछ समझमें नहीं आता। संभव है कि जिस प्रकार श्वेताम्बरों के
* ऊपर उदूष्टय किये हुए षत्रगृहियो' इत्यादि श्लोकसे पहले ।
देखो, यशस्तिलक उत्तरखण्ड पृ० ४१०, नियय सागर प्रेस बन्बई द्वारा सन् १६०३ का छपा हुआ । ।