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किरण ११-१२ ]
का कुछ निदर्शन भी इस प्रकारसे किया है— चुल्लवेकं वस्त्रं नान्यत्स्थितभोजनं । आतापनादियोगोऽपि तेषां शस्वन्निषिध्यते || १५५ || क्षौरं कुर्याच्च लोचं वा पाणौ भुक्तोऽथ भाजने । कौपीन मात्रतन्त्रोऽमौ चुल्लकः परिकीर्तितः ॥ ४५६||
अर्थात्-तुल्ल कोंके लिए एक वस्त्रका ही विधान है, दूसरेका नहीं। खड़े होव र भोजन करनेका विधान नहीं है और प्रतापनादि योगका अनुछान उनके लिए सदा निषिद्ध है । वे क्षौर कराओ ( हजामत बनवाओ ) या लौंच करो, हाथमें भोजन करो या वर्तन ( पात्र) मे और चाहे कौपीन मात्र रक्खो, उन्हें 'क्षुल्लक' कहते हैं ।
ऐलक-पद-कल्पना
यहाँ यह बात बहुत स्पष्ट शब्दों में बतलाई गई है कि उस उत्कृट श्रावकको भी 'क्षुल्लक' ही कहते हैं जो १ लौंच करता है, २ करभोजा है और २ कौपोन मात्र रखता है। उसके लिए क्षौर करानेवाले, पात्रभाजी और एकवस्त्र धारक उत्कृष्ट श्रावकसे भिन्न किसी दूसरे नामकी कोइ जुदी कल्पना नहीं हैं। और इसलिए आजकल प्रायः इन्हीं तीन गुणों के कारण 'ऐलक' नामकी जो जुदी कल्पना की जाती है, वह पीछे की कल्पना जरूर है। कितने पीछे की, यह आगे चलकर मालूम होगा | यहांपर इतना और बतला देना जरूरी है कि श्रीगुरुदासाचार्य के मतानुसार तुल्लक या तो एक वस्त्रक। धारक होता है और या कोरोन मात्र रखता है । परन्तु वस्त्रसहित कौपोन अर्थात् दोनों चीजें नहीं रख सकता । और यह बात श्रमितगतिके कथन के विरुद्ध पड़ती है । वे वस्त्रसहित कौपीनका भी विधान करते है; और कौनरहित खाली एक वस्त्रका वा विधान ही नहीं करते । इसी तरह लौच करने और करभोजी होनेका कथन भी उनके कथन के साथ सामंजस्य नहीं रखता ।
यहां तक के इस संपूर्ण कथनसे इस बातका पता चलता है कि उत्कृष्ट श्रावक, खंडवस्त्रधारी. एकवस्त्रधारी, कौपीनमात्रधारी, उद्दिष्टाहार विरत,
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उद्दिष्टविनिवृत्त और व्यक्तोद्दिष्ट, इन सबका श्राशय एक क्षुल्लकसे ही है---तुल्लक पदके ही ये सब नामान्तर है । यह दूसरी बात है कि इस पदकी कुछ क्रिया श्रांमें आचार्यों में परस्पर मतभेद पाया जाता है; परन्तु उन सबका अभिप्राय इसी एक पदके निदर्शन करनेका जान पड़ा है । साथ ही यह भी मालुम होता है कि कुछ वैकल्पिक ( Optional ) आचरणों की वजहसे उस समय तक इस पदके ( प्रतिमाके) दो भेद नहीं हो गये थे । परन्तु अब आगे के उल्लेखोंसे पाठकोंको यह म लूम होगा कि बादको अथवा कुछ पहले किसी अज्ञात नामा आचार्यके द्वारा इस प्रतिमाके साफ तौ से दो भेद कर दिये गये हैं और उन भेदों मे उक्त वैकल्पिक आचरणोंको बांटा गया है।
(८) विक्रमकी प्राय: बारहवीं शताब्दी के विद्वान श्रीवसुनन्दी आचार्य, अपने उपासकाध्यायनमें, ११ वीं प्रतिमाके धारक को 'उत्कृष्ट श्रावक' बतलाते हुए उसके दो भेद करते हैं, प्रथम और द्वितीय । आपके मतानुसार प्रथमोत्कृष्ट श्रावक एक वस्त्र रखता है और द्वितीय कौपीनमात्र; पहला कैंची या उत्तरेसे बालों को कटाता है और दूसरा नियमपूर्वक लीव करता है अर्थात् उन्हें हाथसे उखड़ता है; स्थान। दिकके प्रतिलेखनका कार्य पहला (वस्त्रादिक) मृदु उपकरणसे लेता है, परन्तु दूसरा उसके लिए नियमसे ( मुनिवत्) पिच्छी रखता है । प्रथमत्कृष्ट के लिये इस बात का कोई नियम नहीं है कि वह पात्र में ही भोजन करे या हाथमें, वह अपने इच्छानुसार चाहे जिसमें भोजन कर सकता है । परन्तु द्विसीयोत्कृष्ट के लिये कर पात्रमें अर्थात् हाथमें ही भोजन करनेका नियम है। इसके सिवाय, बैठकर भोजन करना, भिक्षाके लिये श्रावक के घर जाना और वहाँ आँगन में स्थित होकर 'धर्मलाभ'
8. देखो 'बसुनन्दीश्रावकाचार' नामसे जैनसिद्धान्त प्रचारक मण्डली देवबन्दकी तरफ से सं० १६६६ की छपी प्रति ।