________________
किरण ११-१२ ]
यहां मिवाभाजनके तोन खास विशेषण दिये गये हैं - १ नवकोटि-विशुद्ध, २ याचनारहित और ३ योग्य, जो समन्तभद्र - प्रतिपादित स्वरूप में नहीं पाये जाते । यद्यपि 'योग्य' त्रिशेषणका वहां स्वरूपसे समावेश हो जाता है, परन्तु 'नवकोटिविशुद्ध' और ' याचनारहित' ये दो विशेषण ऐसे हैं जो ख़ास तौर से उल्लेख किये जानेपर हो समझ में आ सकते हैं । और इसलिए इन दो विशेषणों का यहां खास तौर से उल्लेख हुआ है, यह कहना होगा । साथ हो, इस प्रतिमा के धारक का 'उद्दिष्टाहार विरत' नामसे उल्लेख किया गया है और उसके लिए खण्डवस्त्र या एक-दो वस्त्र रखने आदिका कोई नियम नहीं दिया गया ।
T
ऐलक-पद- कल्पना
(५) चारित्रसार ग्रन्थ में, श्रीमन्वामुण्डराय, जो कि वि० की ११ वीं शताब्दी के विद्वान् हैं, इस प्रतिमा के धारकको 'उद्दिष्टविनिवृत्त' नामसे उल्लेख करते है और उसका स्वरूप इस प्रकार देते हैं
"उद्दिविनिवृत्तः स्वोद्दिष्ट विंडो पधिशयनवसता देर्विरतः सन्नेकशाटकघरो भिक्षाशनः पाणिपात्रपुटेनोपविश्यभोजी रात्रिप्रतिमादितपःसमुद्या आतानादियोगरहितो भवति ।"
अर्थात् जो अपने निमित्त तय्यार किये हुए भोजन, उपधि, शयन और वस्त्रादिकसे विरक्त रहता है - उन्हें ग्रहण नहीं करता एक वस्त्र रखता है, भिक्षाभोजन करता है, कर पात्र में आहार लेता है, बैठकर भोजन करता है, रात्रिप्रतिमादि तपश्चरण में उद्यमी रहता है और आतापनादि योगसे वर्जित होता है, वह 'उद्दि-विनिवृत्त' नामका श्रावक कहलाता है।
कौनीऽसौ रात्रिप्रतिमा-योगं करोति नियमेन । लोच पिच्छ धृत्वा भुंक्ते ह्य् पविश्य पाणिपुटे || इन पद्यों में जो कथन किया गया है वह मूल गाथाके कथनसे अतिरिक्त है और उते टीकाकारने दूसरे विद्वानोंके कथनानुसार लिखा है ऐसा समझना चाहिए। इसी तरह पर टीकामें कुछ और भी विशेष पाया जाता है ।
३८६
इस स्त्ररूपमें, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी अपेक्षा, उद्दिष्टाहार के साथ १ उद्दिष्ट उपधि, २ उद्दिष्ट शयन और उद्दिष्ट वस्त्रादिकके त्यागका विधान अधिक किया गया है और शायद इसीसे इस पदवी ( प्रतिमा ) धारकका नाम 'उद्दिष्टाहारविरत' न रखकर 'उद्दिष्टविनिवृत्त' रक्खा गया है । भिक्षाशनको छोड़कर और सब विशेषण भी यहां स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षासे अधिक निर्दिष्ट हुए हैं । परन्तु उनमें एक वस्त्रधारी होना और रात्रिप्रतिमादि तपश्चरण में उद्यमी रहना, ये दो विशेषण स्वामिसमन्तभद्र- प्रतिपादित 'चेलखंडवर' 'और 'तपस्यन्' विशेषणोंके साथ मिलते जुलते हैं। हाँ, इतना जरूर है कि स्वामी समन्तभद्राचार्यने जिस तपश्चरणका सामान्यरूपसे उल्लेख किया है, उसके यहाँ दो भेद दिये गये हैं- एक रात्रिरतिमादिरूप और दूसरा आतापनादि-योगरूप | पहले का विधान और दूसरेका निषेव किया गया है। एक बात यहाँ और भ बतला देनेके योग्य है और वह यह है कि इतने अधिक विशेषणों का प्रयोग करनेपर भी भिक्षाभोजन के साथ स्वामिकार्निकयके 'याचनारहित' विशेषणका उल्लेख यहां नहीं किया गया है । सम्भव है कि ग्रन्थकनोको इस प्रतिमाधारीके लिए यह विशेषण इष्ट न हो। आगे भी कितने हो आचार्यों तथा विद्वानों को यह विशेषण इष्ट नहीं रहा है, और उन्होंने साफ तौरसे इस प्रतिमांधारीके लिए याचनाका विधान किया है ।
(६) श्री अमितगति आचार्य अपने सुभाषितरत्नसंदोह' नामक ग्रन्थमें, जो कि वि० सं १०५० में बनकर समाप्त हुआ है, लिखते हैं किस्वनिमित्तं त्रिधा येन कारितोऽनुमतः कृतः । नाहारो गृह्यते पुंसा त्यक्तोद्दिष्टः स भव्यते ॥ ८३ ॥
अर्थात् - जो मनुष्य मन-वचन-कायद्वारा अपने निमित्त किये हुए, कराये हुए या अनुमोदन किये हुए, भोजनको ग्रहण नहीं करता है ( नवकोटि-विशुद्ध भोजन लेता है) वह