Book Title: Anekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 410
________________ किरण १.] हिन्दी जैन साहित्य के कुछ अज्ञात कवि इनके पितामहका नाम माईदाम था जो गुहानेके जगतराय सुत अति निपुण, निवासी थे। माईकासके दो गुणवान धर्मात्मा पुत्र टेक चन्द सुषरासि । रामचन्द्र भोर नन्दलाल थे जो गुहाना छोड़ पानीपत गंग यमुन ज्यों घिर सदा, में आ बसे थे। इन रामचन्द्र के पुत्र राजा जगतराय कहि कवि कासीदास ॥ थे । जगतरायके पुत्र टेकचन्द थे। राजा जगतराय विक्रमकि संबन ते जानि, अपने कुटम्ब सहित प्रागरे में रहने लगे प्रतीत ___ सत्रह सै वाईस बषान । होते है और ऐसा जान पड़ता है कि वे औरंगजेब माधव माम उजियारो सही, के दबार मे किमी उच्च पद पर प्रतिष्ठित थे । कविने तिथि तरसि भू मुत मी लहा। जगतरायका जो प्रशंसा की है और उनके पुत्र टेकता दिन ग्रन्थ संपूरण भयो, चन्दको भी जो आशीर्वाद दिया है, उससे विदित समति ज्ञान मकज तरु बयो। होता है कि कवि काशीदास राजा जगतरायके आश्रित थे। उस समय अनेक कवि विभिन्न राजा साहि जहां अवनीति भूप, रईमों और सदारोंके आश्रयमें रहते थे, उनकी प्रेरणा विद्यमान विधि कृत गत रूप । पर प्रथ रचना करते थे। यह भी सम्भव है कि तासुत औरग माहि सुजान, काशीदास टेकचन्दके शिक्षक भी हों और पिता पुत्र विजयराज भवति बलवान। के ज्ञानार्श उनकी प्रेरणा पर इन्होंने इस प्रन्थकी तासु प्रसाद भई यह मही, रचना की हो। बादशाह शाहजहांके सम्बन्धमे इति मीनि कोई व्यापी नहीं। कविन जो सरु लेख किया है कि "विद्यमान विधिकृत महर आग मे जु यह कथा भासषपान । गत रूप" वह बड़ा महत्वपूर्ण है। सन् १६५८ में जगतराय हित जय करी, बढ़। ज़ श्रायक ल्यान ।। और गजेब अपने भाइयोंकी हत्या करके और अपने मर्माकत ज्ञान समाज को यह कांप गुणपानि पिता शाहजहांको आगरके किलेमे बन्दी बनाकर कासी कविता यो कहै पढ़ते बढ़े जु ज्ञान ॥ दिल्लीके सिंहासन पर बैठा था। ग्रन्थकी रचनाके इति श्रीमन्महाराज श्रीजगागय जी विस्था समय सं० १७.२ (सन् १६६५ ई.) में शाहजहां तायां सम्यक्त-कौमुदी-कथायां अधम कथानकम् जीवित तो था किन्तु भाग्यने उसे जिस परिवर्तित सम्पूर्ण" दशामें अर्थात् स्वयं अपने ही पुत्रके हाथों बन्दी उपरोक्त प्रशस्तिम विदित होता है कि इम जीविनमे ला रक्खा था उसी अवस्था में था। वस्तुतः रचयिता कोई कवि कासीदास है जिन्होंने संवत् शाहजहांकी मृत्यु इस ग्रन्थकी रचनाके ८-६ मास १७२२ चैत्र शुक्ल त्रयोदशी शनिवारके दिन आगरा पश्चात्, जनवरी सन १६६६ मे हुई थी। 'विजयराज नगरमें यह प्रन्थ पूर्ण किया था। इस ग्रन्थ की भपति बलवान' शब्द औरङ्गजेबके लिये उपयुक्त ही रचना कविने जगनगय नामक किसी राज्य- है। मान्य सज्जन के लिए की थी जो कि संभवतया, खंद है कि ग्रन्थकत्ताने अपने आश्रयदाताका गजा' की उपाधिसे विभूषित थे । जनतराय के लिये तो परिचय दिया किन्तु अपना कुछ भी परिचय प्रशस्ति में 'भूप' शब्दका तथा पुष्पिकामे 'श्रीमन्म- नहीं दिया, बल्कि सरसरी दृष्टिसे देखने पर तो यह हाराज' पदका प्रयाग यही सूचित करता है। भी भ्रम हो सकता है कि इसक रचयिता जगतराय जगतरायकी जाति अग्रवाल और गोत्र सिहल था। ही होंगे। किन्तु कविका स्वयंका दो बार स्पष्ट नामो

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