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३८.
अनेकान्त
[वर्ष १०
पहिरी माला मत्रकी, पायो कुल श्रीमाल। कि उक्त ग्रन्थकी प्रशस्तिक निम्नवाक्योंसे प्रकट है:-- थाप्यो गोत्र बिहालिया, बीहाली रखपाल ॥ १०॥ सिरिपोमावइपरवालवसु, यंदउ हरिसिंघु सघवी जासुसंसु
इसी तरह उपजातियां और उनके गोत्रादिका घत्ता-बाहोल माहणसिह चिरुणंदउ इह निर्माण हुआ है।
रहबू कवि तीयउ वि धरा । कविवर रइधू भट्टारकीय पं० थे और तात्का- मोलिक्य समाणठ कलगुण जाणउ लिक भट्टारकोंको वे अपना गुरु मानत थे, और
गंदउ महियाल सो वि परा भट्टारकोंके साथ उनका इधर उधर प्रवास भी यहां पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना हुआ है और उन्होंने कुछ स्थानामें कुछ समय चाहता हूँ कि मेघेश्वर चरित ( आदिपुगण ) की ठहरकर कई प्रन्थोंकी रचना भी की है, ऐसा सवत १८५१ की लिखी हुई एक प्रति नजीबाबाद उनकी प्रन्थ-प्रशस्तियोंपरसे जाना जाता है। वे जिला बिजनौरके शास्त्र-भंडारमें है जो बहुत ही प्रतिष्ठाचार्य भी थे और उन्होंने अनेक मूर्तियोंकी अशुद्ध रूपमे लिखी गई है जिसके काने अपनेको प्रतिष्ठा भी कराई थी। उनक द्वारा प्रतिष्ठित एक आचार्य सिंहसेन लिया है और उन्होंने अपने मृतिका मतिलेख आज भी प्राप्त है और जिससे को संघवीय हरिसिंघका पुत्र भी बतलाया है। यह मालूम होता है कि उन्होंने उसका प्रतिष्ठा सं० सिंहमनक मादि पुराणक उम उल्लेख पग्मे ही
४६७ मे ग्वालियरक शाम राता डगरसिंहके पं० नाथूरामजी प्रेमीने दशलक्षण जयमालाको राज्यमं कराई थी, वह मूति आदिनाथकी है। प्रस्तावनाम कवि रइधका परिचय कराते हुए
कविवर विवाहित थे या अविवाहित, इमका फटनोटमे श्री पंडित जुगाकशोरजी मुख्तारकी कोई स्पष्ट उल्लेख मेरे देखनमें नहीं पाया और न रइधूको लिहसेनका बड़ा भाई मानने की कल्पना कविने कहीं अपनेको बालब्रह्मचारी ही प्रकट किया को असंगत ठहराते हुए रइधू और मिहमेन को है इससे तो वे विवाहित मालूम होते हैं और जान एक ही व्यक्ति होनकी कल्पना की है। परन्तु पड़ता है कि वे गृहस्थ- पंडित थे; और उस समय प्रेमीजीकी भी यह कल्पना मंगत नहीं है, और व प्रतिष्ठित विद्वान गिन जात थे। ग्रन्ध-प्रणवनमें न रहध सिंहसेनका बड़ा भाई ही है किन्त रखध ना भेटम्बरूप धन या वस्त्राभूषण प्राप्त होत थे और सिंहसेन दोनों भिन्न भिन्न व्यक्ति हैं. सिंहसन वही उनकी आजीविकाका प्रधान आधार था।
अपनेको 'आरिय' प्रकट किया है जब कि बलभद्रचरित्र ( पद्मपुराण ) की अन्तिम रइधन अपनेको पंडित और कवि ही सूचित प्रशस्तिके १७वें कडवकके निम्नवाक्योंसे मालम किया है। उस आदिपुराण की प्रतिको देखने होता है कि उक्त कविवरके दो भाई और भी थे, और दूसरी प्रतियों के साथ मिलान करने से यह जिनका नाम बाहोल और माहणमिह था। जैसा सुनिश्चित जान पड़ता है कि उसके कर्ता कवि रइध
* संबत् १४६७ वर्ष बैसाख........ शके पुनर्वस ही है, मारे प्रन्थके केवल आदि अन्त प्रशस्तिमें नक्षत्रं श्रीगोपाचलदुर्गे महाराजाधिराज राजा श्रीडंग
ही कुछ परिवर्तन है। [डूंगरसिंहराज्य ] सवर्तमानो नि] श्रीकाष्ठासंघे माथूग
शेष ग्रन्थका कथा भाग ज्योंका त्यों है उसमें कोई न्वये पुष्करगणे भट्टारक श्रीगुण कीतिदेव तत्पद यश:
अन्तर नहीं, ऐसी स्थितिमे उक्त प्रादिपुराणके का कीर्तिदेव प्रतिष्ठाचार्य श्री पंडित र तेषां प्रामाये रइधू कवि ही प्रतीत होत है, सिहसेन नहीं। हॉ, अग्रोतवंशे गोयल गोत्रं साधु ......। देखो, ग्वालियर यह हो सकता है कि सिंहसेनाचार्यका कोई दूसरा गजिटियर जिल्द.
दखो, दशलपण की प्रस्तावना।