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३३४ अनेकान्त
[किरण : श्यक जानकारी यहां दी जारही है यदि अन्यत्र कहीं ग्रन्थानं. ४५६ अक्षर १२ अदितः ३४२४ अक्षर इसकी प्रति किसी सज्जनके पास हो तो मुझे सूचित पत्रांक १०८ A पंचमसग अतः श्लोक २३१ । करने की कृपा करें। संभव है उसमें ग्रन्थकारकी इति स्त्रीदुश्चरित्रविरक्ताशोकभद्र ऋषिचरित्रगोभित प्रशस्ति भी प्राप्त होजाय । प्रारंभके १४ श्लोक सगरनन्दनस्वेच्छाबिहारश्रीअष्टापदतीर्थवंदनवर्ण नोप्राप्त होनेसे प्रस्तुत प्रति भी पूर्ण करा ली जायगी। नाम पंचमसर्गः प्र०.२३७ अ०४ आदित:३६६१ ।
देवानन्दसूरि-रचित अजितप्रभुचरित प्रारंभ- पत्रांक १३१B षष्ठ सर्गन्तश्लोक ८१७ इति सगर प्रतिका प्रथम पत्र न मिलनेसे आदिके १४ श्लोक नंदन निधन वसमतीदृष्टान्तपूर्वकतत्पूर्वभवपंचेद्रिय नहीं मिलसके। आदि- अर्हनपादांबुजध्यानवर्जिता मोहतजिता।
दुविपाकसूचककथापंचकमयप्रभुदेशना चक्रवर्तिदीक्षा
वर्णनो नाम षष्ठः सर्गः: प्र०८२२ अ०१६ आदितः अजितं कृत्व तोप्याश्रु। नयंति नृभवं यथा १५
४४८३ १०२१ पत्र प्रथमसर्गअन्त-श्लो. १२३५ ।
पत्रांक १३८B सप्तममग अंतः- श्लोक २४८ इति इति श्री पद्मप्रभाचार्यचरणराजीवचंचरीकश्रीदेवा
श्री पद्मनभाचायचरणराजीवचंचरीकश्रीदेवनंदसूरिनन्दसूरिविरचितेश्रीअजितप्रभुचरिते आनन्दांके महा.
विरचिते श्रीअजितप्रभुचरिते आनंदांके महाकाव्ये दृढ़ कान्येमंगलकलशचंपकमालानागकेतूक्तरगडूकषिदृष्टां- सम्यक्त्वयुद्धभटवृत्रांतप्रस्तावागत अमर दत्तभायोताविभौवितफलदानशीलतपोभावना स्वरूपचतुविधि कथाननिरूपणोनाम सप्तमसर्ग:प्र०२५१ आदित धर्मप्ररूपणोनांमप्रथमः सर्गः ।
४७३४ अ०२१। ग्रन्थान१२४२ अ. २४ पद छः । पत्र ६८B द्वि० सर्ग
अन्तश्लोकअन्तश्लोक१००६ इति श्रीपद्मानंदांके महाकाव्येलक्ष्मी १वध २ स्त्री ३ विषय ४ शरीर ५ वैरस्य स चक श्री आनंदयन् भव्यजनांबुजालीसगोतरापास्ततमसमहः पति १ कोतिचंद्र २ अगडदत्त ३ मध विद शशि- जिनेश सूरो निजपादचार:पवित्रयामास महींसमंतान प्रभा ५ ख्यात अविरति स्वरूप निरूपक जिनपालित
२४८। जिनरक्षित दृष्टांतगर्भित भगवन-पूर्वभववर्णनो नाम लेखन प्रशस्तिश्री अन्चलगच्छेश्रीधर्ममूर्तिसरिविजयद्वितीय सर्गः ॥६।। ग्रन्था० १०१३ अक्षर २८ सर्गद्वये राज्ये आचार्यश्रीकल्याणसागरसरितत्शिष्यवाःश्रीसौ. २२५६ अ० २०
भाग्यमूतिलिखिते भद्र भ०।। ___ पत्रांक EE A तृतीय सगे अन्त-श्लोक ७०७ (पत्र १६८ प्रति पृष्ठ पंक्ति १३ से १६ प्रति पंक्ति इति प० काव्ये च्यवनजन्मदीक्षाज्ञानकल्याणवणेनो अक्षर ३८ से ४२) बीकानेर वृहतज्ञानभंडारके नाम तृतीयसर्गः। श्री प्रन्थान० ७१० अ० १ आदितः जिनहर्षसरि भडार नं० १० में)। २६६४ अ० २१ ए०प०
पत्रांक १०२ A चतुर्थसगअन्त श्लोक ४५८। इति इनको प्राचार्य पद १६४४ में मिला व धर्म मूर्ति सूरि सगरक्रिदिग्विजयधमित्रदृष्टांतचक्रिपूर्व भवोपेत १६७० तक विद्यमान रहे अतः प्रस्तुत मूर्तिका लेखन प्रभुदेशनाचक्रिसुतोत्पन्न वर्णनोनाम चतुथे सर्गः। श्री १६४६ से १६७. के बीच में हुश्रा सिद्ध होता है।