________________
३४८
अनेकान्त
करनाकी सीढी पर नहीं चढ सकता, हिमा पहिली सीढा है और आधार भी, इसीलिए महापुरुषोंन इसे सबसे पहिले गिना आज भी यदि संसारको संकटसे कोई वस्तु बचा सकती है तो वह स्वामी महावीर और पूज्य बापू जी की दी हुड अहिंसा ही है श्राश्रो आज इसके नायकको जयन्ती मनाते समय व्रत धारण करे कि हम इस अहिंसा
पूज्य वर्णीजीका पत्र
11:1:1
- पूज्य वर्सेजीका पत्र 'जैन गजट' 'वीर इंडिया' और जैन मित्रादि पत्रोंमें प्रकाशित हो चुका उसका विवादास्पद अंश इस प्रकार है :
[ वर्ष १०
को जिसके लिए उन्होंने अपना अमूल्य जीवन दिया हम भी उनके पथ पर चलतहुए इस अहिंसा के लिए हर प्रकारका बलिदान देनेके लिए तैयार हो तभी हम सच्चे अर्थोमं महावीर जयन्ती मना सकते है, आओ उनके आदेशोंका अपने जीवन में घटा कर संसारको अपने जीवनसे ही उनकी जयन्तीका सन्देश दें।
“ अस्तु, यह जो शूद्र समस्याका श्रांदोलन हो रहा है इसमें समाज का महती हानि उठानी पड़ेगी । किन्तु कौन कहे, सुनने वाला कौन ? सत्याग्रहक यहां करनेसे लाभ क्या ? इतनी निर्मल परिणति बनाओ जो जगत् स्वय तुमसे मागे पूछे ! अहिंसा की उपासना करना तो सीखते नहीं । श्रहिंमा धम हमारा है यह ध्वनि क्यों ? यदि तुम्हारा है तब क्या नहीं पालन करत ? कवल कहने से क्या लाभ ? विचारा तो सही धमे तो वह वस्तु जिसके उदय में कोई गंगादि अंश भी नहीं रहता । शुद्ध द्रव्य रह जाता है। फिर शूद्रको मन्दिर जानका अधिकार नहीं ? मेरा तो यह विश्वास है कि मन्दिर अनेक अधिकार भलेही न हो किन्तु आंशिक मोक्ष का अधिकारी जैसे आप लोग है वह भी है उच्च कुल में पैदा होनेमे धर्मात्मा हो यह नियम नहीं और यहभी नियम नहीं जो मन्दिरमे जानम धम हो सकता है। धर्म तो आत्माकं निर्मल भावोंसे सम्बन्ध रखता है ।
अस्पृश्य भो तो प्राणी है। मझी है वे भी मदाबारी होसकत हैं । पञ्चलब्धियों में देशनालब्धि क्या हम जैनों के वास्ते ही है। कहां तो यह कहना कि जैनधर्म सार्वजनिक हैं और कहां यह हठ यदि
शूद्र लोग मन्दिर आगए तब न जाने क्या होगा ? क्या होगा ? कुछ न होगा। मन्दि रोम देशनाका प्रबन्ध करो और उन्हें समझाओ धर्मका मर्म तो यह है पहले अनाम बुद्धि छोड़ो । पश्चात् प पापोंका त्याग करो पश्चात् विधि-विहित धमोचरण करो । सो तो कुछ है नहीं हम सत्याग्रह करके दिखा देंगे। जो वर्तमान सरकारको अन्ततोगत्वा झुकना ही पड़ेगा इत्यादि
यह पत्र कितना मूल्यवान है उसका यह अंश हा हमें जागृत करनेक लिये पर्याप्त है और जैनधर्म के सर्वादय तीर्थका प्रतीक है, वह कितना उपयोगी और सामयिक है । हम पत्रके विचारोंस पूर्णतः सहमत है । जिन्होंने पूज्यवर्गीजीक आध्यात्मिक पत्र पढ़े है व उनकी महत्ता स्वयं परिचित हैं। आपके पत्र जहाँ वस्तुस्थितिके निःशंक होते है वहाँ व अध्यात्म की चर्चा में सराबोर भी रहते है और मुमुक्ष प्राणियों के उत्थान में एक साधक गुरुका कार्य भी करत है । अस्तु, पत्रकी महत्ता और उसके औचित्यका ध्यान न रखने वाले किन्हीं तिलोकचन्द्र जैन और निरंजनलाल आदिने पत्रकी आलोचना करते हुए उन्हें सिद्धान्तसे अनभिज्ञ तक लिखनेका दुःसाहस किया है और उनकी पावन - श्रद्धा पर भी आक्रमण किया है। यद्यपि उनका यह आक्रमण कषाय और अन्धश्रद्धा के साथ तात्त्विक विचारसे रहित है उसमें सौजन्यताका