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किरण १०]
वर्णी जी का स्पष्टीकरण महाराज कहें उसे मानो। दि अस्पशे का सम्बन्ध है तब आप लोग उसको दवा गट गट पोते हैया शरीर से है तब रहे, इसमें आत्माकी क्या हानि नहीं ? फिर क्यों उससे स्पर्श कराते हैं ? आपस है और यदि अस्पर्शका सम्बन्ध आत्मासे है तब तात्पर्य बहुमत जनतासे है। आज जो व्यक्ति पापजिसने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर जिया वह अस्पशे कर्ममे रत हैं वे र्याद किसी प्राचार्य महाराजके कहां रहा। मेरा तो यह विश्वास है कि गुण- मान्निध्य को पाकर पापोंका त्याग कर देवें तब क्या स्थानोंको परिपाटीमे जो मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती धमात्मा नहीं हो सकते ? प्रथमानयोगमें ऐसे बहत है वह पापी है। तब चाहे वह उत्तम वर्णका से दृष्टान्त है। व्याघ्रोने सुकौशलस्वामीके उदरको क्यों न हो, यदि मिध्यादृष्ट है तब परमाथेसे पापी विदारण किया और वही श्री कीर्तिधर मुनिके उपही है। यह सम्यक्त्वी है तब उत्तम आत्मा है। देशसे विरक्त हो समाधिमरण कर स्वर्ग लक्ष्मीकी यह नियम शूद्रादि चारों वर्णोपर लागू है। परन्तु भाक्ता हुई। अतः किसीको धमसेवनसे वंचित व्यवहारमे मध्यादर्शन सम्यग्दर्शनका निर्णय बाह्य रखने के उपाय रच कर पापके भागी मत बनो। श्रावरणांस है अतः जिसक आचरण शुभ हैं वही हम तो मरल मनुष्य है आपकी जो इच्छा हो उत्तम कहलात है, और जिनके आचरण मलिन कहला प्राप लोग हो धमके ज्ञाता और आचरण है बे अघन्य कह है । तब एक उत्तम कुलवाला यदि करने वाले रहो । परन्तु ऐसा अभिमान मत करो अभय भक्षण करता है, वेश्यागमनादि पाप करता कि हमारे सिवाय दुमरे कुछ नहीं जानते। "पोलो है उस भी पापी जीव मानो और उस मन्दिर मन कमण्डल छीन लेंगें" इससे हम भय ही क्या भाने दो; क्योंकि शुभ आचरणमे ही पतित अस्पशे क्यों कि यह तो बाह्य चिन्ह है इन के कार्य तो और असदाचारी है। यदि सदाचारी है तब वह कोमल वस्त्र और अन्य पात्रसे भी हो सकते हैं। प्रापके मतसे व श्री प्राचायमहाराजकी आज्ञास पस्तक छीननेका आदेश नहीं है। इसमे प्रतीत भगवान के दर्शनका अधिकारी भले ही न हो; परन्त होता है कि पुस्तक ज्ञानका उपकरण है वह आत्मोपंचम गुणस्थानवाला अवश्य है। पाप त्यागकोही प्रतिमें सहाई है, उसपर किसोका अधिकार महिमा है। केवल उत्तम कलमं जन्म लेनेसेही व्यक्ति
नहीं। तथा आपने लिखा कि आचार्य महाराजसे उत्तम हो जाता है ऐसा कहना दुराग्रह ही है । उत्तम प्रायश्चित लेकर पदकी रक्षा करो। यह समझमें कुल की महिमा सदाचारसे ही है, कदाचारसे नहीं। नहीं आता। जब हमे अपने आचरणमें आत्मविनीच कुली भी मलिनाचारस कलंकित है। उसमे श्वास है, चारित्रकी निर्दोषता में श्रद्धा है तब मास खात है, मृत पशुओंका ले जात है आपक प्रायश्चित्त की बात मोचना भी अनावश्यक प्रतीत शौ वगृह साफ करत है, इससे आप उन्हें अस्पर्श होती है। जैनदर्शनकी महिमा तो वो ही आत्मा कहते है। सच पछा जाय तो आपका स्वय स्वोकार जानता है जो अपनी आत्माको कषायभावोंसे करना पड़ेगा, कि उन्हें अस्पर्श बनाने वाले आप रक्षित रखता है । यदि कषायवृत्ति न गई तब बाहर ही हैं। इन कार्यो से यदि वह परे हो जाये तो मुनि प्राचार्य कुछ भी बननेका प्रयत्न करे सब क्या आप उन्हें तब भी अस्पर्श मानले जावेंगे? एक नाटकी या स्वांग धारण करना ही है। वह दमरों बुद्धिमें नहीं आता कि आज एक भंगी यदि ईसाई का तो दूर रहे अपना भी उद्धार करनेके लिये पत्थर होजाता है और वह पढ़ लिख कर डाक्टर हो जाता की नौका सहश है। .
गणेशप्रसाद वर्णी इटावा