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किरण १०
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अर्हन्नुतिमाला
उसका वर्णन किया। जाय तो प्रवाद चल पड़े। वे तो आपका उपकार करते हैं परन्तु आप पंक्ति भोजन जब होती है तब अच्छा अच्छा माल अपने उदरमें स्वाहा कर लेते हैं और उच्छिष्ट पानीसे सिश्चित पत्तलों को उनके हवाले कर देते हैं ! अच्छे अच्छे मालतो आप वा गये और सड़े गले या आने काने पकड़ा देते हैं उन विचारोंको इमपर ही हम श्रार्ष पद्धतिकी रक्षा करते है बलिहारी इस दयाकी, धर्म धुरन्धर की !!
शूद्र भी धर्मधारण कर व्रती होसकता है। यह तो सभी मानते है कि धम किसीकी पैतृक सम्पत्ति नहीं चतर्गतिक जीव सम्यक्त्व उपार्जनकी योग्यता रखते है. भव्यादि - विशेषण से सम्पन्न होने चाहिए। धर्म वस्तु स्वतः सिद्ध है और प्रत्येक जीव में है, विरोधी कारण पृथक होने पर उसका स्वयं विकास होता है और उसका न कोई हतो है और न दाता ही है । इस पंचम काल में उसका पूर्ण विकास नहीं होता, चाहे गृहस्थ हो चाहे मुनि हो गृहस्थोंमं सभी मनुष्यामं व्यवहार धर्म का उदय हो सकता है यह नियम नहीं कि ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य ही उसे धारण करे शूद्र उससे वंचित रहे । गृद्ध पक्षो मुनिचरणों में लेट गया । उसके पूर्व भव मुनिने वर्णन किये, सीता रामचन्द्रजी को उसकी रक्षाका भार सुपुर्द किया, जहां कि गृद्धपक्षी हो जावे, वहां शूद्र शुद्ध नहीं हो सकते यह बुद्धि नहीं आता। यदि शूद्र निद्य कार्यो को त्यागदेवे और म यदि खाना छोड़त्रे तब वह व्रती होसकता है मंदिर
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की स्वीकृति देना न देना आपकी इच्छा पर है परन्तु इस धार्मिक कृत्य के लिये जैसे आप उनका बहिष्कार करते हैं वैसे ही कल्पना करो यदि वे धार्मिक व्रत के लिये आपका बहिष्कार करदें या असहयोग करदें तब आप क्या करेंगे? सुनार गहना न बनावे, लुहार लोहेका काम न करे बढई हल न बनावे तो लोधो कुरमी आदि खेती न करें, धाबी वस्त्र प्रक्षालन छोड़ देवे, चर्मकार मृत
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पशु न हटावे, वसोरिन सौरीका काम नकरे। भंगिन शौचगृह शुद्ध न करे, तब संसार में हा हा कार मच जावेगा, हैजा, प्लेग चेचक वाय जैसे भयंकर रोगों का आक्रमण हो जावेगा । अतः बुद्धि से काम लेना चाहिये, उनके साथ मानवताका व्यवहार करना चाहिये, जिससे वह भी सुमार्ग पर आजावें । उनके बालक भी अध्ययन करें तब आपके बालकों के सदृश वे भी बी० ए०, एम० ए०, बैरिष्टर हो सकते है, संस्कृत पढें तब आचार्य हो सकते हैं फिर जिस तरह आप पंच पापका त्याग कर व्रती बनते है यदि वे भी पंच पाप त्याग दें तब उन्हें बती होनेसे कौन रोक सकता है ? मुरार मे एक भंगी प्रतिदिन शास्त्र श्रवण करने आता था, संसार से भयभीत भी होता था, मांसादिका त्यागी था, शास्त्र सुनने में कभी भूल करना उसे सहन न था ।
धर्म किसी की पैत्रिक सम्पत्ति नहीं
पात्र
आप लोगोंने यह समझ रक्खा है कि हम जो व्यवस्था करें वहो धर्म है । धर्मका सम्बन्ध आत्मद्रव्य से है न कि शरीर मे । हां, यह श्रवश्य है कि जब तक आत्मा असंज्ञी रहता है तब तक वह सम्यग्दर्शनका पात्र नहीं होता, संज्ञी होते ही धर्मका पात्र हो जाता है, श्रार्षवाक्य है कि चारों गति वाला मंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव इस अनन्त संसार के घातक सम्यादर्शनका हो मकता वहाँ पर यह नहीं लिखा कि अस्पर्श शूद्र या हिंसक सिंह या व्यन्तरादि या नरकके नारकी इसके पात्र नहीं होते, जतता को भ्रम डालकर हर एकको बावला और अपनेको बुद्धिमान कर देने को शक्तिमान नहीं । आप जानते हैं संसार में जितने प्राणी हैं सभी सुख चाहते हैं और मुखका कारण धर्म है; उसका अन्तरंग साधन तो निज में है फिर भी उसके विकासके लिए बाह्य साधनकी आवश्यकता है जैसे घटोत्पत्ति मृतिकासे ही होती है और फिर कुम्भकारादि बाह्य साधनों की श्रावश्यकता अपेक्षित है, स्व अन्तरंग साधन