Book Title: Anekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 403
________________ ३६८ अनेकान्त [वर्ष १० सम्प्रदायके लिये पाषंड शब्द का प्रयोग हुआ है। इडिकेरं जिल्द १ पृष्ठ ५३० तथा अन्य अनेक ग्रन्थों में पाषंड शब्द पहले मत या सम्प्रदायके अर्थमें प्रयुक्त प्रकाशित हो चुका है। होता था पर पीछेसे इसका प्रयोग छल या इसी सम्प्रति सम्प्रात कोटिके बरे अर्थ में किया जाने लगा। उसका संभाव्य ३६ वर्ष धर्मराज्य करमेके पश्चात् २३२ इ० पू० कारण यह था कि पहले यह शब्द ब्राह्मणेतर सम्प्र में अशोककी मृत्यु हुइ और उसका पोता सम्प्रति दायोंमें प्रयुक्त होता था इसलिये ब्राह्मणोंने तिरस्कृत या सम्पदी उसका उत्तराधिकारी होकर पार्टीलपुत्रकरने के उद्देश्यसे उसे गलत अर्थमें प्रयोग करना के सिंहासनपर अभिपिक्त हुआ। बौद्धग्रन्थों से प्रारंभ कर दिया। मनुस्मतिमें एक श्लोक है: पता चलता है कि अशोकके राजा रहते हुएभी कितवान कृशीलवान कुरान पाषण्डस्थांश्च वास्तवमें शासनकी बागडोर यवराज सम्प्रतिके ___ मानवान। हाथमें थी। अशोकने एक बार भिक्षसंघको एक विकर्मस्थान शौण्डिकांश्च क्षिप्रं निवासयेत् लम्बी रकम दान की और उसे खजानेसे दे देनकी पुरात् ॥ आज्ञा दी किन्तु युवराज सम्प्रतिने अमात्योंको ऐसा इसकी टीकामें कुल्लू कभटने लिखा है, पाषंड = करनेसे रोक दिया।' आगे उसी प्रसगकी कथासे अतिस्मतिबाह्यव्रतधारा। इसस हमारे उपरोक्त कथन यह भी विदित होता है कि अशोकके पीछे सम्प्रति को पुष्टि ही होती है। धर्ममहामात्र वे अमात्य होत ही पार्टीलपुत्रके मिहामन पर बैठा । भिक्षुसंघको थे जो धर्म-संबंधी कार्यों की देखरेख करते थे। दानको गई रकम न मिल सकनेके कारण अशोक पिछले कालमें इसी प्रकार के पुरोहित नामक अमात्य ने दुखी होकर मृत्यु समय सारी पृथ्वी भिक्षुसंघको की नियुक्त होने लगी थी। देवानपिय या देवानां- दान करदी । अशोकको मृत्यके बाद अमात्योंने प्रिय अशोककी उपाधि थी । यह उसके उत्तरा- दानकी शेष रकम भिक्षुमंघको चुकाकर उससे पृथ्वी धिकारी दशरथके लेखों में भी मिलती है। सिंहलका खरीदकर संप्रतिको सिंहासन पर बिठाया।' राजा तिघ्य भी देवानांप्रिय कहलाता था। एक जैन और बौद्ध दोनों ही अनुभूति सम्प्रतिको पाली व्याकरणमें ' क्व गतासि त्वं दवानीपय कुनालका पुत्र कहती है और दोनों के ही अनुसार तिस्स' प्रयोग भी मिलता है । इन सब उदाहरणोंसे कुनाल अपनी विमाताके छलसे युवराज अवस्थामें विदित होता है कि यह कोई असाधारण ही अंधा कर दिया गया था। जिससे उसका उपाधि थी जिसे साधारण राजे धारण नहीं कर सकते अभिषेक नहीं हा। जैन अनीति में सम्प्रतिको थे। लेकिन पीछेसे इसेभी निम्न अर्थमं प्रयुक्त किया राज्य मिलने के संबंधमें तीन मत है । एक तो यह कि जाने लगा। पाणिनिके एक सूत्र 'षष्ठ्या आक्रोशे" कुणाल ने प्रध अवस्थामें उसके लिये अपने पितामे पर कात्यायनने वार्तिक लिखा है 'दवानांप्रिय इति १. तस्मिंश्च समये कुनालस्य संपदी नाम पुत्रो-युवराज्ये च मर्खे अन्यत्र देवप्रियः इति । इस गलत प्रयोगके । लिये भी श्रमणों और ब्राह्मणोंका पारस्परिक दुभाव प्रवर्तते ....... | दिव्यावदान। . तत्पत्रिः संपदी नाम लोभान्धस्तस्य शासनम् । ही जिम्मेदार है। दानपुण्यप्रवृत्तस्य कोशाध्य औरवारयत् ॥ सप्तम स्तंभलेखको भाषा पाली और लिपि -क्षेमेन्द्र कृत अवदानकरूपलता। ब्राझी है। वह बुलर द्वारा एपिमाफिया इ डिफा २. अमात्यैः चतस्रः कोटयो भगवछासने दया पृथिवी जिल्द २ पृष्ठ २४५, हुल्श द्वारा कार्पस ईस्क्रप्सन्म निष्क्रीय संपदी राज्ये प्रतिष्ठापिता । दिव्यावदान ।

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