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था।' उमने सालमें आधे से ज्यादा दिन पशुओं का वध निषिद्ध कर दिया था । और वह सभी मनुष्यों को समान एवं अपने पुत्र जैसा मानता था। ऐसी बात नहीं है कि वह प्रजासे ही धर्मकृत्य करनेकी प्रेरणा करता हो लेकिन स्वयं भी उसी प्रकार आचरण करता था पशुओं और मनुष्योंके लिये उसने अलग अलग अस्पताल खोल रखे थे तथा औषधियां बांटता रहता था । उसने सड़कों पर वृक्ष लगवाए और कुए खुदवाए । इसीप्रकारके अन्य अनेक कार्य जो पशुओं और मनुष्यों के उपयोगके थे, उसने किये ।" उसके धमोचरण से प्रभावित हो पड़ोसी राजेभी धर्मका आचरण करने लगे थे। अपने साम्राज्य में इन सब कार्यों की देखरेखके लिये अशोकने अलग अलग कर्मचारियों को दौरा करने की आज्ञाएं दे रखीं थीं।
सभी धर्मो के प्रति समान दृष्टि
अनेकान्त
[ वर्ष १०
पूजा ।' उसकी धारणा थी कि सभी मत समय और भावशुद्धि की कामना करते है । इसलिये वह स्वयं ब्राह्मणों, श्रमणों और स्थविरोंके दर्शनके लिये धर्मयात्रा करता था और लोगों से धर्मवृद्धि के संबंध में पूछता था । वह सभी मतके माधुओं की पूजा करता और उन्हें दान तो देता ही था पर उसकी अपेक्षा उनकी सारवृद्धिको अधिक श्रेयस्कर समझता था। * यह सारवृद्धि यद्यपि कई प्रकारसे हो सकती थी पर अशोककी दृष्टिमे उसका मूल था बचोगुप्ति अर्थात् अपने मतकी प्रशंसा तथा दूसरे मतकी निंदा न करना । अन्य मतोंका अपकार और निंदा करना अशोक अच्छा नहीं समझता था । उसका विचार था कि अपने मत की कोरी प्रशंसा तथा दूसरे मतकी गहो न करने वाला व्यक्ति अपने मतको वृद्धि तो करता ही हैं साथ ही साथ अन्य मतोंका उपकार भी करता है। और जो इसके विपरीत करता है वह अपने मतको तो कमजोर बनाता ही है, साथ ही साथ परमतका अपकार भी करता है जो यह सोचकर कि मैं अपने मत की दीपना करता हूँ, अपने मतकी प्रशंसा और दूसरे मतकी गर्दा करता है वह तो और भो
अशोक की सबसे अधिक प्रशंसनीय और अनु*ग्णोय नीति थी उसकी धर्म-सहिष्णुता और सर्वमत
१. ४था स्तंभलेख ।
२श्व स्तंभलेख 1
३. सवे मुनिसे पजा मम । कलिंगलेख ।
४. रात्रो द्वे चिकीछे कता मनुसचिकीछा च पसुचिकीड़ा च, प्रोढानि च यानि मनुसोपगानि च पसोपगानि च तत नास्ति सर्वत्र हारापितानि च रोपापितानि मूलानि च फलानि च यत यत नास्ति सर्वत्र द्वारापितानि च रोपापितानि च पंथेसु कृपा व खानापिता aat च रोपापिता प्रतिभोगाय समनुसानं ।
२ रा शिक्षा लेख ।
५. ७वां स्तंभलेख देखें जहां अशोक अपने किये कार्योंका लेखा देता है शिलालेख ।
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६. १३
• सर्वत विजिते मम युता च राजुक व प्रादेसिके पंचसु वासेसु अनुसंधानं नियातु एतायेव प्रथाय । ३ रा शिलालेख ।
१ सवपाडा पि मे पूजिता विविधाय पूजाया । छटा
स्तंभलेख | देवानपिये पियदसि राजा सवपाडा नि च पवजितानि च घरस्तानि च पूजयति दानेन विविधाया च पूजाय । १२ वां शिलालेख
२. देवानंपियो पियदसि राजा सर्वत इछति सबै पाडा वसेयु सवे ते समय व भावसुधिं च इति । ७ व शिक्षालेख ।
३८ शिलालेख ।
४.
.............न तु तथा दाम व पूजा व देवान पियो मंजते यथा किति सारवडी अस सवपाडान' |
१२ वां शिलालेख |