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अनेकान्त
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उठी तब आचार्य महाराजने यह कह कर मझे आपके पास भेजा है कि इसका यथार्थ उत्तर माघनन्द ही दे सकते हैं। कृपा कर आप इसका उत्तर दीजिये ।
इन वाक्योंको सुनते ही उनके मनमे एक दम विशुद्धताकी उत्पत्ति हो गई और मनमें यह विचार आया कि यद्यपि मैंने अधमसे अधम कार्य किया है फिर भी आचार्य महाराज मुझे मूनि शब्द से सम्बोधित करते हैं और मेरे ज्ञानका मान कर ते हैं कहां है मेरी पीछी, और कमण्डलु ?
यह विचार आते ही उन्होंने आगन्तुक मुनिसे कहा कि मैं इस शङ्काका उत्तर वहीं चलकर दूँगा और पीछी कमण्डलु लेकर वनका मार्ग लिया । ari प्रायश्चित्तविधि शुद्ध होकर पुन: मुनिधममें दीक्षित हो गये ।
बन्धुवर ! इतनी कठोरता का व्यवहार छोड़िये गृहस्थ अवस्था में परिग्रहके सम्बन्धसे अनेक प्रकारके पाप होते हैं। सबसे महान् पाप तो परिग्रह ही है फिर भी श्रद्धाको इतनी प्रबल शक्ति है कि समन्तभद्र स्वामी ने लिखा है
गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् । अनगारी गृही श्रेयान् निर्मोहो माहिनो मुनेः ॥ अर्थात् निर्मोही गृहस्थ मोक्ष मार्ग में स्थित है और मोही मन मोक्ष मार्ग में स्थित नहीं हैं। इससे सिद्ध हुआ कि मोही मुनिकी अपेक्षा मोह-रहित गृहस्थ उत्तम है। यहां पर मोह शब्दका अथ मिध्या दशन जानना । इसोलिये आचार्योंने सब पापोंस महान पाप मिध्यात्वको हो माना है। श्री समन्तभद्र स्वामी और भी लिखा है कि
नहि सम्यक्त्वसमं किचित्रैकाल्ये त्रिजगत्यति । श्रयोऽश्रेयश्च मिध्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ॥ इसका भाव यह है सम्यग्दर्शन के सदृश तीन काल और तीन जगत मे कोई भी कल्याण नहीं अर्थात् सम्यक्त्व आत्माका वह पवित्र भाव है जिसके होते ही अनन्त संसार का अभाव हो जाता
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है और मिथ्यात्व वह वस्तु है जो अनन्त संसार का कारण होता है अतः महानुभावो ! मेरे पर नहीं पर दया करो और इसे जाति में मिलाने की आज्ञा दी जाए।
इन पञ्चमहाशय मे स्वरूपचन्द्र जी बनपुरया बहुत ही चतुर पुरुष थे वे मुझसे बोले- आपने कहा को आगम प्रमाण तो वैसा ही है परन्तु यह शुद्धि-प्रथा चली आ रही है उसका भी स ंरक्षण होना चाहिये । यदि यह प्रथा मिट जावे तो महान
शनैः शनै: ही कार्य होता हैनथ होने लगेगे अतः आप उतावली न कीजिये
कारज धीरे होत है काहे होत अधीर ।
समय पाय तरुबर फलै केतिक सींचो नीर || इसलिये मेरी सम्मति तो यह है कि यह प्रांत भर के जैनियों को सम्मिलित करे उस समय इनका उद्धार हो जावेगा।
प्रान्तका नाम सनकर मै तो भयभीत हो गया क्योंकि प्रान्तमे अभी हठ वादी बहुत है परन्तु लाचारथा अब चुप रह गया ।
आठ दिन बाद प्रान्तके दो सौ आदमी सम्मि लित हुए भाग्य स हठवादी महानुभाव नहीं आये अतः पञ्चायत होने में कोई बाबा उपस्थित नहीं हुई अन्तमे यह निणय हुआ कि यदि यह दो पंगत कच्ची रसोई की देवें तथा २५० ) पपौरा विद्यालय की और २५० ) जतारा मन्दिर को प्रदान करें तो जातिमें मिला लिये जावं ।
मैंने कहा- अब बिलम्ब मत कीजिये कलही इनकी पतंग ले लीजिय ! सबने स्वीकार किया, दूसरे दिन से सानन्द पंक्ति भोजन हुवा और ५०० ) दण्ड के दिये। उसने यह सब करके पञ्चों की चर
रज सिरपर लगाई और सहस्रों धन्यवाद दिये। तथा बीस हजारकी सम्पत्ति जो उसके पास थी एक जैनी का बालक गोद लेकर उसके सिपुर्द करदी इस प्रकार एक जैन का उद्धार होगया और उसकी सम्पत्ति राज्य मे जानेसे बच गई।