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दन किया परन्तु उन्होंने एक नहीं सुनो, यहीं उत्तर मिला कि पञ्चायती सत्ताक' लोप हो जावेगा । मैंने कहा- मैं तो अकेला हूँ; वह रखली औरत मर चुकी है लड़की पराये घर की है आप सहभोजन मत कराइये परन्तु दर्शन तो करने दीजिये । मेरा कहना अरण्यरोदन हुआ - किसीने कुछ न मुना वही चिरपरिचित रूखा उत्तर मिला कि पञ्चायती प्रतिबन्ध शिथिल हो जायेगा ....... यह मेरी आत्म-कहानी है । मैंने कहा- आपके भाव सचमुच दर्शन करने के है ?
अनेकान्त
मैं 'अवाक् रह गया पश्चात् उससे कहा- भाई साहब ! कुछ दान कर सकते हो न ?
वह बोला जो आपको आज्ञा होगी शिरोधार्य करूंगा। यदि आप कहेंगे तो एक लंगोटी लगाकर घर से निकल जाऊंगा परन्तु जिनेन्द्र-देव के दर्शन मिलना चाहिये क्योंकि यह पञ्चम काल है इसमे विना अवलम्बनके परिणामों की स्वच्छता नहीं होतो आजकल के लोगों की प्रवृत्ति विषयोंमें लीन हो रही हैं । यदि मैं स्वयं विषय में लोन न हुआ होता तो इनके तिरस्कारका पात्र क्यों होता ? श्राशा है आप मेरी प्रार्थना पर ध्यान देने का प्रयत्न करेंगे। पञ्चलोगोंक जाल में आकर उन कंसी बात मत बोलना ।
मैंने कहा- क्या आप विना किमो शतके सङ्ग ममेरकी वेदी मन्दिर में पधार सकते है ? उन्होंने कहा- हां इसमें कोई शंका न करिये मैं १०००) का वेदो श्री जी के लिये मन्दिर मे जड़वाऊंगा और यदि पचलोग दर्शनको आज्ञा न देंगे तो कोई आपत्ति नहीं करूंगा, यही भाग्य समभूगा कि मेरा कुछ तो पैसा धर्मकार्य में गया ।
[ वर्ष १०
होकर चले गये। मैंने कहा - अमुक व्यक्ति १००० की मगमर्मर की वेदिका मन्दिर में जडवाना चाहता है आपको स्वीकार है ।
इसके अनन्तर मैंने घर जाकर सम्पूर्ण पब्च महाशयों को बुलाया और कहा कि यदि कोइ जैनी जाति से च्युत होने के अनन्तर बिना किसी शर्तक दान करना चाहे तो आप लोग उसे क्या ले सकते हैं ? प्रायः सबने स्वीकार किया। यहां प्रायः से मत लब यह है कि जो एक दो सज्जन विरुद्ध थे वे रुष्ट
उनका नाम सुनते हो बहुत लोग फिर विरोध करने लगे, बोले- वह तो २५ वषसे जातिच्युत है अनर्थ होगा आपने वहां कि आपत्ति हम लोगों पर डाली ।
मैंने कहा- कुछ नहीं गया, मैंने तो सहजही में कहा था। पर जरा विचार करो - मन्दिरको शोभा हो जावेगो तथा एक का उद्धार हो जावेगा । क्या आप लोगोंने धमका ठेका ले रक्खा है कि आपक सिवाय मन्दिर में कोई दान न दे सके। यदि कोइ अन्य मतवाला दान देना चाहे तो आप न लेवेगे ? लिहारी है आपकी बुद्धि को ? अरे ! शास्त्रमें तो यहां तक कथा है कि शूकर सिंह नकुल और वानरसे हिंसक जीव भी भुक्तिदान की अनुमोदना भागभूमि गये । व्याघ्रोका जीव स्वर्ग गया, जटायु पक्षी का जीव स्वर्गे गया, बकरेका जीव भी स्वर्ग गया, चाण्डालका जीव स्वर्ग गया, चारों गतिक जीव सम्यग्दृष्टि हो सकते है, तियंञ्चोंके पञ्चम गुणस्थान हो सकता है। धर्मका सम्बन्ध आत्मास है न कि शरीरसे, शरीर तो सहकारी कारण है, जहां आत्माकी परिणति माहादि पापोंसे मुक्त हो जाती है वहीं धमका उदय हो जाता है। आप इसे बेदिका न जड़वाने देंगे परन्तु यह यदि पपांग विद्यालयम देना चाहेगा तो क्या आपके वर्णी जी उस द्रव्यको न लेवेंगे और वही द्रव्य क्या आपके बालकोंके भाजन में न आवेगा ? उस द्रव्यसे अध्यापकोंको वेतन दिया जावेगा तो क्या वे इनकार कर देवेंगे ? अत: हठ की छोड़िये और दया कर आज्ञा दीजिये कि एक हजार रुपया लेकर जयपुर से बंदी मगाई जावे ।
सबने सहर्ष स्वीकार किया और वेदिका लाने तथा जड़वाने का भार श्रीमान् मोतीलाली वर्णीक अधिकारमें सापा गया। फिर क्या था उन जातिच्युत महाशय के हर्ष का ठिकाना न रहा। श्री वर्णी