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पतितपावन जैनधर्म
( लेखक - पूज्य तु० गणेशप्रसाद जी वर्णी ।)
मड़ावरा से चलकर हम लोग श्री० पं० मोतीलाल जी वर्णीके साथ उनके ग्राम जतारा पहुँचे। वहां पर आनन्द से भोजन और पं० जी के साथ धम चचा करना यही काम था ।
यहां पर एक जैनी ऐसे थे जो २५ वर्षसे समाज के द्वारा बहिष्कृत थे । उन्होंने एक गहोई औरत रख ली थी उसके एक कन्या हुई उसका विवाह उन्होंने एक विनैकावालके यहां कर दिया था । कुछ दिनों के बाद वह औरत मर गई और लड़की अपनो सुसराल में रहनी लगी । जातिसे बष्कृित होनेके कारण उन्हें लोग मन्दिर मे दर्शन करनेके लियेमी नहीं आने दिन थे और जन्मसं हो ज ेन धर्मके संस्कार होनेके कारण अन्य धममे उनका उपयोग लगता नहीं था । एक दिन हम और पं० मोतीलाल जो तालाब में स्नान करने के लिये जा रहे थे मार्गमे वह भी मिलगये । श्री वर्णी मोतीलालजी से उन्होंने कहा कि क्या कोई ऐसा उपाय है कि जिससे मुझे जिनन्द्र भगवान के दर्श नोको आज्ञा मिल जावे ? मोतीलालजी बोले- भाई यह कठिन है तुम्हें जातिय खारिज हुये २५ वर्ष हो गये तथा तुमन उसके हाथम भोजन भी खाया है अतः यह बात बहुत कठिन है।
हमारे पं मोनालालजी वर्णी अत्यन्त सरल थे उन्होंने ज्योंकी त्यों बात कह दी। पर मैंन वर्णीजा से निवेदन किया है कि क्या इनसे कुछ पूछ सक ना हूं? आप बाले - हां जो चाहो सो पूछ सकते हो। मैंने उन आगन्तुक महोदय से कहा - अच्छा यह बताओ कि इतना भारी पाप करनेपर भी तुम्हारी जिनेन्द्र देव के दर्शन की रुचि कैसे बनी रही ?
वह बाल - पण्डितजी ! पाप और वस्तु है तथा म कचि होना और वस्तु है । जिस समय मैन उस औरतको रक्खा था उस समय मेरो उमर तोम
की थी, मै युवा था, मेरी स्त्रीका दहान्त हो गया मैन बहुत प्रयत्न किया कि दूसरी शादी हो जावे, मैं
यद्यपि शरीर से निरोग था और द्रव्य भी मेरे पास २००००) से कम नहीं था। फिर भी सुयोग नहीं हुआ, मन में विचार आया कि गुप्त पाप करना महान् पाप है इसको अपेक्षा तो किसी औरतको रख लेना अच्छा है । अन्तमें मैंने उस औरतको रख लिया। इतना सब होने पर भी मेरी धर्मसे रुचि नहीं घटी। मैंन पञ्चोंसे बहुतही अनुनय विनय किया कि महाराज ! दूरसे दशन कर लेने दो परन्तु यही उत्तर मिला कि मार्ग विपरीत हो जावेगा । मैंने
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कहा कि मन्दिर मे मुसलमान कारोगर तथा मोची आदि तो काम करनके लिये चले जावे। जिन्हें जैन धमकी रामात्र भी श्रद्धा नहीं परन्तु हमको जिनेन्द्र भगवानक दर्शन दूर से ही प्राप्त न हो सकें- बलिहारा है आपका बुद्धिको काम वासना के वशीभूव होकर मेरी प्रवृत्ति उस आर हो गई इसका अर्थ यह नहीं कि जैन धर्मसे मेरी रुचि घट गई ।
कदाचित् आप यह कह कि मनकी शुद्धि रक्खा दर्शनस क्या लाभ हाता तो आपका यह कोई उचित उत्तर नहीं है। यदि कंवल मनकी शुद्धि पर ही आप लागोका विश्वास हैं तो श्री जैन मन्दिरोंके दशनांक लिये आप स्वयं क्यों जाते हैं ? तीर्थ-यात्राके व्यर्थ भ्रमण क्यों करते हैं ? और पवकल्याणक प्रतिष्ठा आदि क्यों करवान है ? मनका शुद्धि ही सब कुछ हैं ऐसा एकान्त उपदेश मत करो, हम भी जैन-धम मानते है । हमने औरत रखला इसका अर्थ यह नहीं कि हम जैनीही नहीं रहे। हम अभीतक श्रष्टमूल गुण पालत हैं, हमने आज तक अस्पतालका दवाई का प्रयोग नहीं किया किसी कुदेवको नहीं माना, अनछना पानी नहीं पिया, रात्रि भोजन नहीं किया, प्रतिदिन गर्माकार भत्रकी जाप करते है, यथा-शक्ति दान देते है तथा सिद्धक्षेत्र श्री शिखरजी की यात्राभा कर आये है..इत्यादि पब्चोंसे निव