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किरण ]
अन्यत्र अप्रात अजितप्रभु चरित स. १२६६ पाटण वासुपूज्यरित
वर्द्धमानसूरि (सं० प्र०५४६४)
(ही. हं० प्रकाशित) सं १३०२ चन्द्रभचरित
सर्वानंदसरि (म०६१४१)
पाश्वचारत से १३१७ शांतिचरित स.
पौ अजितप्रभ स.रि (ग्र०४६११ १३२२ शांतिरित स. (४८८५)
मुनिदेवसरि १३३२ श्रेयांमचरित स
मानतुगाचार्य (म० ५१२४) इस लेख में जिस अजितप्रभुचरितका परिचय स्वतन्त्र चरित काव्य अद्यावधि जानने में नहीं दिया जारहा है वह इसी समयके लगभगकी आया कुछ वर्ष हुए बीकानेरके जैन ज्ञानभंडारोंकी रचना है अतः यहीं तक स्वतन्त्र तीर्थकर-चरितों सची बनाते हुए स्थानीय बड़े उपाश्रयके बृहद ज्ञान की सचो दीगई हे। कुछ अनिश्चित पर इस बीचके भंडारके अंतर्गत जिनहषरिभंडारमें एक अजितअन्य ज्ञात चरितग्रंथ इसप्रकार है।
प्रभु चरितकी उपलब्धि हुई है अतः प्रस्तुत लेखमें
उसका परिचय प्रकाशित किया जा रहा है। प्रतिका ग्रंथनाम ग्रन्थकार उल्लेख
प्रथम पत्र प्राप्त न होनेसे प्रारंभके १४ श्लोक प्राप्त ५ वासुपूज्यचरित चंद्रप्रभ (प्रा. ८०००) पाटणभंडार
नहीं होसके। ग्रंथके अन्तमें प्रन्थकारकी प्रशस्ति भी (हेम सूर्यादि संशोधित) मृची पृ. १४०।४२ नहीं है केवल सर्ग-समाप्तिमें लेख-प्रशस्ति पाईजाती २ शान्तिचरित माणिक्यसूरि उल्लेख वृहत् टिप्पणका है उससे ग्रन्थके रचयिता श्री पद्मप्रभाचायके शिष्य (म५५७४)
देवानन्दसरि सिद्ध होते है। काव्यका अपर-नाम ३श्रेयांसचरित देवभद्रसरि (राजगच्छ) पाटण भंडार आनन्दाङ्क लिखागया है, यह ७ सर्गात्मक है । यद्यपि (पाटणमें रचित)
प्रशस्ति नहीं होनेसे ग्रंथकारके गच्छ एवं संवत ४ पद्मप्रभचारत देवभद्रशिध्यसिद्धसेनसूरि जिनरत्नकोष
का उससे निर्णय नहीं होता, पर जैनसाहित्यनो (इनमें नं. २ मंभवतः उपयुक्त माणिक्यसूरि
सक्षिप्त इतिहास के पृ० ४४४ में सं.१३२० में पौ० रचितसे अभिन्न हो, मेरा श्वेताम्बर साहित्यसे
। चन्द्रप्रभसूरि धर्मघोष, भद्रेश्वर, मुनिप्रभ, रत्नप्रभ अधिक परिचय होनेसे तीर्थकरचरित सम्बन्धी .
चन्द्रसिंह, देवसिंह, पद्मतिलक, देवचन्द्र, पद्मप्रभ श्वेताम्बर ग्रंथोंको ही ऊपर सची दीगई है मैं दिगम्बर विद्वानों से अनुरोध करूंगा कि वे अपने साहि सूर
सूरि शिष्य देवनंद अपर नाम देवमूर्तिके रचित
क्षेत्र समास व स्वोपज्ञ वृत्तिका उल्लेख है । प्रस्तुत त्यकी सूची शीघ्र ही प्रकाशित करें ताकि उनके
चरितमें उल्लिखित गुरुनामकी समानता को देखते साहित्यका यथास्थान व यथासमय उपयोग किया
हुए क्षेत्रसमासके रचयिता इनसे अभिन्न प्रतीत होते जाता रहे।
है । अतः आपका गच्छ पूनमिया व समय स०१३२० इसके पश्चात् भी आज तक प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रश व लोक भाषामे तीर्थङ्करोंके चरित-प्रन्थ बनाने के लगभग का निशचत होता है पाठकोंकी जानकारी का क्रम चालूही है पर अजितनाथ स्वामीका कोई के लिये अजित प्रभु-चरितके आदि-अंतके साथ श्राव