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सम्राट अशोक के शिलालेखोंकी अमरवाणी
(श्री निर्द्वन्द )
महाराज अशोक से तो सभी परिचित हैं। उन्हींका चक्र हमारी राष्ट्रीय ध्वजामें विराजमान है । उन्होंने समय समय पर जो शिलायें बनवाई थीं, और उनपर उनके जो धार्मिक उपदेश लिखे हुये हैं, वे विचारणीय हैं, अतः कुछ शिलाओंके लेख नीचे दिये जाते है ।
प्रथम लेख - यह पवित्र शिलालेख महाराजाधिराज प्रियदर्शिनद्वारा लिखा गया है ।
“यहाँ (राजधानी में ) कोई पशुबलिदान के लिये न मारा जाए। न त्योहार मनाए जाएं। क्योंकि प्रिय दर्शिन राजा उनमें बहुत से दोष देखता है। कोई कोई त्योहार बड़े बुरे हैं, वे नत्रों के सामने भी न पड़ें।
पहले प्रियदर्शिनके भोजनालय मे बहुतसे जो वत पशु कढ़ी बनानेके लिये मारे जाते थे ।
पर अब, जब यह पवित्र शिलालेख लिखा जा रहा है, केवल तीन पशु अर्थात दो मोर और एक मृग प्रतिदिन मारे जाते हैं, और कभी कभी यह भी नहीं ।
ये तीनों भी भविष्य में न मारे जायेंगे ।" द्वितीय लेख -- “ मनुष्य तथा पशुओंके सुखके
लिए प्रबन्ध |
महाराज प्रियदर्शिन के राज्य में और आधोनस्थ राज्यों जैसे चोला, पांडया, सातिया पुत्र कोलपुत्र, तथा अन्य स्थानों में राजा प्रियदर्शिन की ओरसे दो प्रकार के उपाय ( औषधालय) किये गये है । एक पशुओंके लिये और दूसरा मनुष्योंक लिये । औषधियोंकी जड़ी बूटियाँ जो मनुष्य और पशुओं को लाभ पहुँचा सकती हैं प्रत्येक स्थानों पर जहां नहीं होती है, भेज दी गई हैं और उत्पन्न कराई गई हैं।
उसी प्रकार से कन्द तथा फल, जहां कम थे वहां भेजे और उगाये गये है ।
सड़कों के किनारे पेड़ लगा दिये गये हैं और मनुष्य और पशुओं के हेतु कुएं' खुदवाये गये हैं ।" तृतीय लेख - महाराजा प्रियदर्शिन इस प्रकार से कहते हैं -
"मैं अपने राज्य के तेरहवें वर्ष में निम्न घोषणा करता हूँ
मेरे राज्य में प्रत्येक स्थानपर कर्मचारी कर वसूल करनेवाले प्रबन्ध करनेवाले, प्रति पांचवें वर्ष एक साधारण सभा किया करें जिसमें दया धर्मके नियमों की घोषणा के अतिरिक्त यह कहा जाय कि मां बापको आज्ञा मानना अच्छा है, मित्रों, सम्बन्धियों, ब्राह्मणों, साधुओंके साथ नम्र व्यवहार करना अच्छा है । जोवनकी पवित्रताका आदर करना अच्छा है । भाषा (बोल-चाल) की तीव्रता तथा
फक्कड़पनको दूर करना अच्छा है ।
उपदेशकगण इन बातों का विवरण लेखों द्वारा तथा अपने श्राचार द्वारा प्रजाको समझा दें ।
चतुर्थ लेख - सैकड़ों वर्ष बीत होंगे, बहुत समय से जीवोंकी हिंसा करना, पशुओं पर अत्याचार सन्तोंका अपमान करना चला आया है । करना, सम्बन्धियोंका निरादार करना, ब्रह्मण-साधु
पर अब महाराजा प्रियदर्शिन दयाशस्त्र से, युद्ध के नगाड़े बजाकर नहीं, वरन दयाकं नगाड़ े बजाकर, जब कि जनता रथों, घोड़ों तथा आतिशवाजीके दृश्यों को देख रही है, राजा प्रियदर्शिन इस बातकी, जो मैकड़ों वर्षोंसे नहीं हुई, दया धर्मकी रक्षाके, लिये घोषणा करता है कि पशुओंका हनन बन्द हो, उन