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अनेकान्त
[किरण
दार्शनिकादि ग्रन्थोंका अच्छा संग्रह रहा होगा। पर परम्परायें चाल थीं जिनमें एक परम्परा पद्मनन्दी,
आज उनका कहीं पता भी नहीं चलता । विक्रमको विष्णुनन्दी, विश्वनन्दो, वृषभनन्दी, रामनन्दी, १०वीं शताब्दी से १३ वीं शताब्दी तक धारा और त्रैलोक्यनन्दी, माणिक्य नन्दी, और नयनन्दीकी थी। उसके पास-पास के प्रदेशोंमे जैन विद्वानोंका अस्ति- और दूसरी परम्परा वह है जिसका उल्लेख ११ वों त्व और उनकी रचनाओंका ममुल्लेख इसबातका शताब्दीके विद्वान श्रीचन्दने अपने ग्रन्थों में तथा सचक है कि वहां उक्त समयमें जैनधम वा जैन श्राचार्य महासनके प्रद्य म्नचरितकी प्रशस्तिमें और संस्कृतिका प्रचार सुचारु रूपपे चल रहा था सम्बत् दुवकुण्डके शिलालेखमें पा जाता है, जिसका १० में आचार्य देवसेनने धाराके पाश्वनाथ चैत्या- संबंध लाडवागणके विद्वानोंसे है। यह वागडसंघलयमें निवास करते हुए दर्शन-सारकी रचना को थी का ही एक भेद है। इस संघमें अनेक विद्वान हुए काष्ठा संघके आ० अमितिगतिने सं०१०५ से १०७३ है। देवसेन, दुलभसेन, अवरसेन, शांतिषेण, विजतकके मध्यवर्ती समयमें अनेक ग्रन्थोंकी रचना की यकीति, श्रीनन्दी, श्री चन्द्र मागरसेन, महाप्लेन, है। यह मुजको सभाके सभारत्न विद्वानोंमे से थे। गुणाकरसन जयसेन आदि। इनके अतिरिक्त तीसरी लाट बागड गणके प्रसिद्ध आचार्य गुणाकर सेनके परम्परा काठामघसे संबंध रखती है जिसमें धम शिष्य महासेनाचायने प्रद्य म्न चरितकी रचना सं0. परीक्षादि ग्रन्थोंके कतो अमितगति हुए है। १०३१ से १०६६ केमध्यवर्ती किसी समयमें कोहै श्रा
इन सब उल्लेखांसे धारा नगरीकी महत्ताका सिन मुजद्वारा पूजित थ इनके सिवाय और सहज ही आभाम हो जाता है। अनेक विद्वान अपने अस्तित्वसे धारा नगरीको सुशो- उपरकी उल्लेखित गुरू परम्परासे तथा ग्रंथकता भित करते थे जिनके शुभ नामों आदि का अभी हमें के अन्य उल्लेखोंसे यह स्पष्ट है कि नयनन्दीके गुरु ठीक पता नहीं है ' (इसी तरह श्री चन्द्र प्रभाचन्द्र का नाम माणिक्यनन्दी था जो लोक्यनन्दीके शिमाणिक्यनन्दी, श्री नन्दी, सागरमन और प्रवचन
व्य थे यह माणिक्यनन्दी वही माणिक्यनन्दी है सेन आदि अनेक विद्वानोंका उल्लेख उपलब्ध है।
जो सुप्रसिद्ध परीक्षामुख नामक न्याय-सत्र ग्रन्थके (ये सब विद्वान् भोजदेवके समाकालोन है।) की यह न्याय शास्त्रके महाविद्वान् थे, कविन
दूव कुण्डके शिलालेखसे ज्ञात होता है कि राजा स्वयं निम्न पद्योंद्वारा अपने गुरुका और अपना भोजदेवकी मभामें पंण्डित अम्बरसन आदि विद्वा- परिचय दिया है। नोंसे बाद करन वाले सेकड़ों विद्वानोंको आचाय पच्चव-परोक्ख पमाणणीर, शान्तिषेण ने शास्त्रार्थ में पराजित किया था
__णय तरल तरंगालि गहीर। सदशन चरितकी प्रशस्तिमें ग्रन्थकारने जो वरसत्तभंगि कल्लोलमाल, अपनी गुरु परम्पराका उल्लेख किया है उससे स्पष्ट
जिण सासणसरिणिम्मल सुसाल । जात होता हैकि उम हमय धारामें विद्वानों की कई पडिय चूडामणि विबुह चंदु, १प्रास्थानाधिपती बुधादिविगणे श्रीभोजदेव न.पे, सभ्ये
माणिक्कणदि उप्पण्णु कंदु । प्वंवरसेन पंडित शिरोरत्नादिषुधन्मदान् । योने- [१५] दिढ बुद्धि कठिण कंटयपयंड, कान् शतसो अजेष्ट पटुता भीष्टोद्यमो धादिनः । शास्त्रांभो
तेहा तुहुं हुउ सीसु गुणस्थ दंछ। निधि पारगोभ बदतः श्रीशांतिषेणो गरुः ।।
तम्भन विमल सम्मत्त सदत्लु, एपिप्राफिका इंडिका भाग २ पृ. २३७-२४०
(शेष टाइटिलके तीसरे पृष्ठ पर)