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पुरातन जैनशिल्पका संक्षिप्त परिचय
गुप्तकाल में आकर मूर्तिकला प्रौढ़ हो चुकी थी और विकासके उच्चतम शिखर पर पहुंच चुकी थी और अनेक सुन्दर, सुडौल, समानुपात एवं भावपूर्ण मूर्तियां इस युग में बनीं । कुषाणकाल का सादा प्रभामंडल अब अलंकृत बनाया जाने लगा था और उसमें हस्तिनख, मणिबंध तथा अन्य बेल बुटे सजाये जाते थे । इस कालकी सैंकड़ों मृतियां मथुराकी खुदाई में प्राप्त हुई हैं । उत्थित पद्मामनसे ध्यानमुद्रामें स्थित किसी तीर्थङ्करकी मूर्ति उक्तकाल की जैनमूर्तियों में सर्वोत्तम है। इस मूर्ति तो लेख कोई हैं और न कोई चिन्ह ही । इस लिए यह निणय नहीं किया जा सकता कि यह किस तोको मूर्ति है।
उदयगिर (भेलसा) की पहाड़ी में गुहा नं २० मे पार्श्वनाथकी एक मूर्ति खुदी है जिस के बगल मे एक लेख भी है। यह गुफा कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल में निर्मित हुइ थी। बेसनगरसे प्राप्त एक तीर्थङ्कर मूर्ति और दूसरा पार्श्वनाथका फरणयुक्त मस्तक ग्वालियर के पुरातत्व संग्रहालय मे प्रदर्शित है । कुमारगुप्तके समय के एक अन्य लेख से विदित होता है कि उक्त कालमें आदिकर्ताओं (आदिकर्तृन) की मूर्तियां दान की गई थी।
पूर्व मध्यकाल में भी यही क्रम जारी रहा, पर धीरे-धीरे श्रलङ्कारोंकी वृद्धि होने लगी और कला मे कृत्रिमताने स्थान पकड़ लिया । मध्यकाल में जैन मूर्तियाँ अत्यधिक संख्या में बनीं। ऐलोराके जगन्नार्थसभा, इन्द्रसभा आदि गुहामन्दिरोंकी मूर्तियां - जिनमे से महावीर बाहुबलि, पार्श्वनाथ मुख्य है - इस कालके उत्तम नमूने है । यहां इन्द्र और इन्द्राणी की मूर्ति इतनी स्वाभाविक एवं तदनु रूप है कि लोगोंने इन्हींके नाम पर उक्त गुहाका नाम इन्द्रसभा रख दिया। उक्त गुहामें इन्द्र ऐरावत पर और इन्द्राणी सिंह पर आसीन हैं। इसी प्रकार उत्तर मध्यकाल में चंदेलों, परमारों आदि राजवंशों का प्रभाव बढ़ा और इनके प्रश्रयमें जैन धर्मका प्रचार भी हुआ । मध्य भारत तथा दक्षिण में इस
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कालके मन्दिर और मूर्तियां बहुतायत से मिलते हैं।
अब कलामें कोई नवीनता न आसकी और वह बूढ़ी हो चुकी थी। बस पुराना अनुकरण ही चल रहा था । कहीं कहीं उत्तर में दक्षिणकी कला का अनुकरण किया जा रहा था। इस काल में देवगढ़ खजुराहो आदि स्थानोंपर अनेक मन्दिर और मूर्तियां निर्मित हुई ।
दक्षिणकी मूर्तियां और मन्दिर भी इस काल की विशेषता है । श्रवणबेलगोलाकी विशालकाय गोमटेश्वर बाहुबली की मूर्ति मूर्तिकलाका अद्वितीय नमूना है । यह मूर्ति एक ही पत्थरको है और एक पहाड़ी पर स्थित है । इतनी सुन्दर और ऊची मूर्ति अन्यत्र कहीं नहीं पाई गई ।
ग्वालियर के किलेको उत्तुंग मूर्तियां १५ व १६ वीं शती की है और वे पूरे किले में भीतर और बाहर इतनी संख्या में काटी गई हैं कि उनसे उस कालमें जैन धर्मका अत्यधिक प्रचार होना प्रमा णित होता है।
धातु मूर्तियां
धातुमूर्तियां हर प्रकार से सुरक्षित मानी जाती थीं । पत्थर तो टूट भी सकता था, उस पर चिट्टे पड़ जाते थे, वर्षा और गर्मी के प्रभावसे वह दरक भी जाना था। पर धातु मूर्तियों में यह दोष न था, और इसलिये १०-११ वीं शती से लोगों की रुचि इस और बढ़ी और वे अत्यधिक संख्या में बनाई गई। ब्राह्मण और बौद्ध मूर्तियां भी धातुओं बनने लगी थीं और दक्षिणके धातुकार इसमें विशे
दक्ष निकले । धातु की जैन मूर्तियोंमें प्रायः तीन विन्ह, छत्र, पार्श्वचर आदि साथमें बने रहते हैं । या पांच जिन खड्गासन में मिलते हैं और उनके
मन्दिर
ऊपर मूर्तियों के बारेमें लिखते समय स्थानस्थानपर मन्दिरोंके वारे में भी संकेत कर दिया गया है । जब मर्तियां बनने लगीं तो उनकी रक्षा और उनपर छाया की भी आवश्यकता प्रतोत होने