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अनेकान्त
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लगी। धूप और पानीसे उनको रक्षा आवश्यक थी बौद्धोंको भाँति जैनोंमें भी स्तपों और चैत्यों
आर इसलिये मूतिगृह बनाये जाने लगे। अनेक की पूजा प्रचलित थी, यह मथुराके विशाल स्तूपसे मर्तियोंपर बड़े बड़े छत्ते भी पाये जाते है जिनका प्रमाणित हो गया है। यह नहीं कहा जा सकता कि उद्देश्य रक्षा ही प्रतीत होता है। पूर्व कालके जैनोंने स्तप पूजा बौद्धोंके अनुकरण पर प्रारम्भ की मन्दिर शिखरहीन होते थे और उनपर छत रहती क्योंकि मथराके स्तूपकी प्राचीनता उसी काल तक थी। इन मन्दिरों में प्रदक्षिणा मार्ग, गर्भगृह आदि जाती है जिस कालमें बौद्धों में स्तूप पूजा प्रचलित भी बनाये जाते थे। धीरे-धीरे शिखर शैलीका थी। यह स्त प उतना ही कलापूर्ण था जितने बौद्ध प्रादुर्भाव हुआ और पीछे तो शिग्वर-निर्माणमें ही स्तूप और इसमें बौद्ध स्तूपके सभी अङ्ग-तोरण, कारोगरीका प्रदर्शन किया जाने लगा। दक्षिणके वदिका आदि सुन्दर रूपमें विद्यमान थे। मन्दिर विशेष अलंकृत हैं। खजुराहोके मन्दिरोंमें स्तूपका मूल अभी तक विद्वानोंके विवादका भी कलाके अलंकृत रूपके दशन होते है । आबूके विषय बना हुआ है । किन्हींका मत है कि यह मन्दिरोंका तो कहना ही क्या। पूरा मन्दिर संग- प्राचान यज्ञशालाप्राक
प्राचीन यज्ञशालाओंका अनुकरण है जबकि दूसरे मरमरका है और इसकी छतपर जो कारीगरीकी इस बुद्धके उलट कर रखे गये भिक्षापात्रके आधार गई है उसे देखकर दांतों तले अंगुली दबानी पड़ती
पर निर्मित मानते हैं। कभी कभी विशिष्ट पुरुषोंके है। मानस्तम्भकी रचनाका सुन्दर उदाहरण एलोरा स्मारक रूपमें भी स्तृप बनते थे और उनमें उनके की इन्द्रसभा गुहा है जिसको कारीगरो देखने योग्य अस्थि-फूल रखे जाते थे। पर यह आवश्यक नहीं है। भारतीय मन्दिर-निर्माण कला शिखरनिर्माण __ था कि सभी स्तुप ऐसे हों। सारनाथके धमेख स्तृप कलाका अध्ययन वेपर शैली नागरशली, द्रविड़
और चौखण्डी स्तुपमें कनिंघनको कुछ भी प्राप्त शेली आदिको ध्यानमें रख कर किया जाना
नहीं हुआ था। चाहिये।
चैयोंक बारेमें भी यह भ्रम फैला हुआ है कि
वे चिताभूमि पर बनाए जाते थे। पर सच बात ऐसी गुहा, स्तूप, चैत्य और आयागपट्ट
नहीं है। चैत्य उसे कहा जाता था जो चिने जाते हों मौय सम्राट और उमके पुत्र दशरथकी बनवाई
और वे प्रायः ईट के बनते थे।। बराबर पहाडीको कड़े तेलिया पत्थरकी आजोबक
आयागपट ट चौग्लूटे पत्थरके पट्ट होते थे। भितओं को दानकी गई श्रोपदार गुफाए, गुहा
इन पर चैत्य, स्तप आदिकी रचना की जाती थी निर्माण कलाका प्रथम उदाहरण हैं। कलिंग सम्राट
और ये पजाके काममें आते थे। मथराकी खुदाई महामेघवाहन खारवेलकी खर्डागार और उदय में अनेक आयागपटट प्राप्त हये है जो मथुरा और गिरिकी गफाए', उदयगिरि (भलसा) की गुहा नं० लखनऊके संग्रहालयोंमे प्रदशित है। मथरा संग्र२०, एलोराकी इन्द्रसभा, जगन्नाथ सभा आदि
हालयका क्यू २ नम्बरका आयागपट्ट विशेष गुफाएं तथा पश्चिम भारतको अन्य जैन गुफाएं महत्त्व का है जो मथराके विशाल स्तूपकी अनुजे नोंमें प्रचलित गहा निर्माण के सुन्दर नमूने कृति अनुमानित किया गया है। इस पर इस्वी १ हैं। एलोराकी गफाएं तो चित्रित भी है और उनमें ली शती पर्वका एक छह पंक्तियोका लेख है ऐसे रंगोंको काममें लाया गया है जो आज भी जिससे विदित होता है कि वसु नामकी एक वेश्या अपने पूर्वरूपमें जैसेके तैसे हैं। छतपर चित्रित ने इसे दान में दिया था। लखनऊ संग्रहालय में कमलका नीला रंग इतना अधिक चमकीला है प्रदर्शित अनेक भायागपट्ट मथराके प्राचीन स्तप जैसे वह आधुनिक चित्रण हो।
की बनावट पर प्रकाश डालते हैं।