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किरण 7
द्विमुखराजर्षिवर्णनोनाम द्वितीय प्रस्तावः । श्लोक २४३ ३. इति श्रीखरतरगच्छालंकारसार (श्रीजिन)राज सूरिगणधर पट्ट श्रीजिनवद्धनसूरिविरचिते तृतीप्रस्तावे नमिप्रथम द्वितीयभवबर्णनो प्रथमप्रकाशः । श्लो. २८८
नाम
कतिपय प्रकाशित ग्रन्थों की अप्रकाशित प्रशस्तियां
४ इति श्रीखरतरगच्छालंकार सारश्रीजिनराजसूरिगणधर पट्टे श्रीजि नवद्धनसूरिविरचिते तृतीयचतुथ भवन
श्री प्रत्येकबुद्धचरित्र नाम द्वितीयप्रकाशः । श्लोक ७०२
५. इति श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनराजसूरिपट्टे श्रीजिनवर्द्धनसूरिविरचिते श्री प्रत्येक बुद्धचरित्र तृतीय (प्र०) नमि पंचमषष्ठमभववणनो नाम तृतीय प्रकाशः | ३|| श्लोक ८८४
६. इति श्रीखरतरगच्छाधिराज श्रीजिनराज सूरिपट्टे श्रोजिनबद्धनसूरिविरचिते प्रत्येकयुद्ध चरित्र तृतीय प्रस्तावे नमिसप्तमभववर्णनो नाम चतुर्थ प्रकाश श्लोक
जैसा कि उपर्युक्त उद्धरणोंसे स्पष्ट होता है प्रकाशित एवं हस्त लिखित प्रतिमें ३ प्रत्येक बुद्धोंका ही चरित प्राप्त है जबकि प्रत्येक बुद्ध ४ हैं। नभगति नामक चतुर्थ प्रत्येक बुद्धकी कथा इसमें नहीं है अतः इस कथा की मूल प्रतियोंका अन्वेषण आवश्यक है । जैनरत्न कोष के अनुसार इसकी अन्य प्रतियें १ भडार कर इन्स्टीट पूना २ विमलगच्छउपाश्रय अहमदा बाद में है उन्हें देखके निर्णय करना है कि उनमें भी ३ प्रत्येक बुद्ध केही चरित्र हैं या चौथेका भी नाम है ।
२ नरवर्मचरित्र - इसे उक्त पंडितजीने सं० ४६६६ में (६२ पृष्ठोंका) प्रकाशित किया था। इसमें यद्यपि प्रशस्ति दी हुई है पर प्रन्थकारका नामोल्लेख नहीं है । सं १६६१ के लगभग वाज्ञोतरेके भावहर्षीय भंडारकी प्रतियोंका अवलोकन करते हुए इस ग्रन्थ की एक सुन्दर एवं प्राचीन प्रति उपलब्ध हुई जिसमें ग्रन्थकार के नाम सूचक निम्नोक्त प्रशस्ति उपलब्ध हुई जिससे इसके रचयिता खरतरगच्छीय विनय
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प्रभोपाध्याय सिद्ध होत है जिसके रचयिता गौतम राम बहुतही प्रसिद्ध हैं ।
"सं० ४५२ वर्षे श्रीविनयप्रभोपाध्यायैः श्री स्तंभनपुर स्थिते सम्पक्कसाराचके हिनरवर्म नृप कथाः । ४६४ | शुभं भवतु । पत्र १०
२. गौतम पृच्छ । वृत्ति - इसकी पंडितजो ने प्रकाशित (१२६ पृष्ठोंवाली) तीमरो श्रावृत्ति मेरे संग्र हालय मे हैं; उसमें प्रशस्ति आदि प्रन्थकार सम्बन्धी कुछभी उल्लेख प्राप्त नहीं है, जबकि हमारे संग्रहकी उक्त वृत्तिकी हस्तलिखित प्रतिमें निम्नोक्त प्रशस्ति हैं। उसकी रचना स्व० मतिवर्द्धनने सं० १७३८ मगसिर मे जयतारणमे की सिद्ध होती है ।
पंडितजी ने मूलग्रन्थकी गा. ६४ वीं देकर व्या ख्या-सुगमा करके छोड़ दिया है, तब हमारी प्रतिमें व्याख्या इस प्रकार है
व्याख्या-अष्टचत्वारिंशत् प्रश्नैः चतुषष्ठिगथा प्राज्ञता श्रीवीरेण भगवता श्री सिद्धान्त मध्ये सवि स्तरं प्रश्नं कथितमस्ति परमत्र प्रन्थे गौतमेन संक्ष ेपेण अथः मणितंः एतदर्थं यः शृणोति वा पठति तस्य पुरुषस्य पापं न भवति पुण्यभावो भवति पश्चान्मोक्ष सुखं भुनक्ति श्रवः भव्यलोकैरियं गौतम - पृच्छा पठनीया श्रोतव्या एवं ।
श्री जिनहर्षरिया सुशिप्याः पाठकावराः । श्री सुमतिमाश्च तच्छिष्य मंतिवर्द्धनैः ॥१॥ पाठक पद संयुक्तः कृता चेयं कथानिका । श्रीमद् गौतम पृच्छाया सुगमा सुखबोधिका ॥२॥
सिद्ध 'रामो मुना' चन्द्र' 'वर्षेऽस्मिन् मार्गशीर्षके । श्रीमत्यां जगतारण्यां नगर्यां च शुभे दिने || ३ || इति श्री गौतम पृच्छायाः सुगमा वृत्तिः संपूर्णा । ग्रंथा ग्रन्थ २६८३ । पत्र ३४
४. विक्रमचरित्र (पंचदडकथात्मक) इसे पंडित जीने सं० १६६८ में प्रकाशित किया है। प्रस्तुत संस्करण में कहीं भी प्रन्थकारका नामनिर्देश नहीं पाया जाता, जब कि स्थानीय ज्ञानभंडारस्थ प्रतिसे * अकानां वामतो गतिः