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अनेकान्त
(वर्ष १०
जामनगरके पं० होगलाल हमराज जैन श्वे. श्यक है। इसी प्रमंगसे प्रकाशित प्रत्येकबुद्धचरित कान्फरेन्सकी ओरसे जैमलमेरादि जाकर वहांके को देखना प्रारम्भ किया तो पं० हंसराजका ज्ञानभंडारस्थ प्रतियों को सूची बनाई एवं पचामों प्रकाशित निर्मायक प्रत्येकबद्धचरित प्रकाशित ग्रन्थोंको प्रकाशमें लाकर उन्हें सर्व माधा- उससे अभिन्न हो प्रतीत हुआ। इससे मनमें बड़ा रणकेलिये सुलभ बनाया उसकेलिये तो वे धन्य- खेदहा कि पहले ज्ञान न होनेसे व्यर्थहो प्रतिवाद के पात्र हैं पर उन्हें उक्त कार्य जैसी योग्यता व लिपि कराने आदिमें समय एवं अर्थकी बरबादी प्रमाणिकतासे करना चाहिये था, वैमा किया हुआ हुई। खैर! जिम बंडल में उक्त प्रकाशित प्रति थी, प्रतीत नहीं होता। जैसलमेर भंडारकी सूची बनाने उसमें पंडितजीके प्रकाशित अन्य ग्रन्यों को भी देखा, में असावधानी रखने के कारण पचासों भल भ्रान्ति- तो उनमें भी रचयिताके नामादिका निर्देश नहीं मिला। योंकी परम्परा बढ़ी एवं कई प्रन्थोंकी प्रशस्तियां प्रका अतः हस्तलिखित प्रतियोंसे मिलान किया तो अन्य शित न करनेसे उनके रचियताओंके सम्बन्धमें अन्धेर ३-४ ग्रन्थों के भो रचयिताआका पता चल गया । इसी कर दिया गया। यहां आपके कतिपय ऐसेही ग्रन्थों अन्वेषणको पाठकांके सामने यहाँ उपस्थित की प्रशस्तियां प्रकाशितकी जा रही है जिनसे उनके किया जा रहा है। अन्तकी एक प्रशस्ति सागरानन्द वास्तविक ग्रन्थकारोंका भलीभांति निर्णय हो जाय। सूरि जीसपादित श्रीपाल चरित्र प्रवचूर्णिकी है, वह
गत वर्ष मेरे भ्रातृ-पुत्र भंवरलालका बनारम भी प्रकाशित संस्करणमें नहीं दी गई थी। अतः जाना हुआ और वहांक पू० हीराचंद्रसूरिजी के हस्त- यहां दे दो जा रही हैलिखित ज्ञानभंडारका अवलोकन कर उसने कति- १.प्रत्येकबुद्धचरित्र-इसे पं. हीरालाल हंसपय ग्रन्थों के नोटम लिये। मेरे कलकत्ते जानेपर राजने अपने जैन भास्करोदय प्रिन्टिग प्रसमें मुद्रित उसने मुझे उन्हें बतलाया तो कई ग्रन्थ मुझे अन्यत्र- कर १६७६ में प्रकाशित किया है। ग्रन्थ संस्कृत अप्राप्त होनेके कारण महत्वके प्रतीत हुए। उनमें से भाषामें पद्यबद्ध है। पत्राकार पृष्ठ ३५४ में ग्रन्थ जिनवर्द्धनसूरिका प्रत्येक बुद्धचरित्र भी एक था। भंडार समाप्त होता है । ग्रन्थके चार प्रकाश हैं, प्रकाशकने उसने पूरा नहीं देखा था। अतः उसे देखने व वहां ग्रन्थकारके नाम-सूचक कहीं भी प्रशस्ति नहीं दी है जाके अवलोकन-कार्य पूरा करनेकी इच्छा हुई। और न कहीं सचना ही दी गई है पर बनारसके इधर महावीर जयन्तीकेलिये वैशालीका निमंत्रण आ० होराचन्द्र सूरिजीके संग्रहकी प्रतिसे मिलानेपर मिला और वहां जानेपर बनारस भी जाना हो यह काव्य १५ बी शतीके खरतरगच्छाचार्य जिनवर्द्धगया । अवसर पाकर मैंने उक्त भंडारके अवशिष्ट नसरि-रचित सिद्ध होता है। प्रशस्तिसूचक पंक्तियां प्रन्थभी देख डाले व प्रत्येकबुद्धचरित्रकी तो प्रेस प्रत्येक प्रकाशके अन्त में प्राप्त हैं जो निम्न प्रकार है। कापी करानेके लिये सूरिजीसे अनुरोध कर प्रति भी प्रति १७ वी सदोके प्रारम्भकी लिखित है। साथ ले आया। प्रति लौटानेकी अवधि कम मिली इति श्रीप्रत्येकबद्रचरित्र श्रीखरतरगच्छाअतः प्रतिलिपि करनेका कार्य कलकत्ते में मिश्रीमल लंकारसार श्रीजिनराजसरिंगणधरप श्रोजिन जी पालेरेचा व बीकानेरमें गोविन्दप्रसादजीद्वारा वर्द्धनसूरिविरचिते करकंडवणनो नाम प्रथम
। कराया गया। नकल पण हा जानपर विचार प्रस्तावः॥शा श्लो-३३ हुआ कि यह अलभ्य काव्य प्राप्त हुआ है अतः २. इति श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनराजसूरिपट्टे इसका परिचयात्मक एक लेख तैयार करना आव. श्रीजिनवर्द्धनसूरिविरचिते श्रीप्रत्येक बुद्धचरित्र