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किरण ] सम्राट अशोकके शिलालेखोंकी अमरवाणी
३०६ पर अत्याचार न किये जायें। ब्राह्मण, सम्बन्धियों ठीक है मनुष्य अपनी इच्छाओं और अपनी साधुओंका आदर किया जाए। माता-पिता तथा आकांक्षाओंमें अस्थायी है। बड़ोंकी श्राज्ञा मानी जाए।
कळ धर्मावलम्बी कलका पालन करेंगे और कुछ अब बहुत-सी अन्य रीतियों द्वारा दयाका प्रचार थोडेका ही। कुलका तो पालन करना सदाचारी हो रहा है । और राजा प्रियदर्शिन उममें वृद्धि करने पुरुषों के लिये भी असम्भव है क्योंकि जितेन्द्रिय का यत्न करेगा।
बनना, मनको पवित्र करना, उदार तथा कृतज्ञ बनना __ महाराजाधिराज प्रियदाशनके लड़के, पोते, पर- प्रत्येकका कार्य नहीं है।" पोते संसारके अन्त तक इस कार्य में वृद्धि करेंगे और
छठा लेख-"प्राचीन समयमें राजा, महाराजा दयाधर्मी तथा सदाचारी बनकर दयाका प्रचार करेंगे। क्योंकि दयाका पालन करना व्यभिचारियों
भ्रमणके हेतु जब निकलते थे, तब आनन्द प्राप्त
करना विशेषतया मृगयाद्वारा मन बहलाना उनका का काम नहीं है। __इस विषयकी उन्नति तो अच्छी है पर पहन
काम था। अच्छा नहीं है।
__पर प्रियदशिन गजा अपने राज्यके ग्यारहवें इस लेखका उद्देश्य यही है कि मनुष्य इसकी वर्ष सत्य ज्ञानकी खोजके लिये निकला उसने दया वृद्धि करें और अवनति करके दुःख न पावें।" धर्मका प्रचार किया, ब्राह्मण और साधुओंका
यह महाराजा प्रियदर्शिनकी आज्ञासे उसके श्रादर करना बताया, बड़ोंकी भाशा माननेको कहा, राज्यके तेरहवें वर्षमे लिखा गया है।
दयाधर्मपर विवाद किए, और उसकी घोषणा की। पञ्चम लेख
इस प्रकार प्रियदर्शिनको आनन्द प्राप्त करनेकी नियमका पूर्ण पालन करना ।
और ही रीति है जो प्राचीन रीतिसे सवथा भिन्न है। "महाराजा प्रियदर्शिनकी इच्छा है कि प्रत्येक स्थान में प्रत्येक धर्मके पुरुष इसका पालन करें, क्यों- आशा है राजा और प्रजा इन शिलालेखोंसे कि वे सब जितेन्द्रिय बनना और मन पवित्र करना कुछ लाभावन्ति होंगे। चाहते है।
'नवयुग'
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ख-इसी किरणमें अन्यत्र श्री अगरचन्दजी नाहटाका 'जैन धातु-मूर्तियोंकी प्राचीनता' शीर्षक एक लेख मुद्रित हो रहा है। उसमें प्रापने अनेक धातु-मूर्तियों को पहली-दसरी प्राति शता. हिदयोंका भी होना उल्लेखित किया है। वह विचारणीय है और विशेष प्रकाशको अपेक्षा रखता है। अतः उन जेखोंका फोटो तथा अन्य सहायक साधन सामग्री प्रकाशमें लाना चाहिये।
-स० सम्पादक।