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अनेकान्त
[वर्ष १० उससे पंडितजीका उपयोग अब किसीभी कार्यमें ग्रन्थभी बनाए हैं, परन्तु अभी तक देश-देशान्तरोंमें नहीं लगता था और न चित्तमें पूर्व जैसी स्थिरताहो उनका जैसा प्रचार होना चाहिये था वैसा नहीं थी। यद्यपि अन्तस्तलमें आत्म-विवेककी किरण हुआ है और तुम इस कार्यके सर्वथा योग्य हो, तथा अपना प्रकाश कर रही थीं और वे कभी कभी जैनधर्मके मर्मको भी अच्छी तरह समझ गए हो, उदित होकर सान्त्वनाकी अपूर्व रेखा सामने ला अतएव गुरु दक्षिणामें तुमसे केवल यही चाहता हूँ देती थीं, परन्तु चित्तमें वास्तविक शान्ति नहीं थी। कि जैसे बने तैसे इन ग्रन्थोंके प्रचारका प्रयत्ल करो यद्यपि पंडितजी अपनी दैनिक क्रियाओंका अनुष्ठान वर्तमान समयमें इसके समान पुण्यका और धर्म भी करते थे फिरभी उनमें पहले जैसी सरसता की प्रभावनाका और कोई दूसरा कार्य नहीं है।" और उल्लासकी आभा दिखाई नहीं देती थी। यह कहनेकी आवश्यकता नहीं कि पंडितजीके पंडितजी संसारकी परिवर्तनशीलतासे. और कर्म-• सुयोग्य शिष्य संधीजीने गुरुदक्षिणा देनेमें जराभी बन्ध तथा उससे होनेवाले कटक परिणामसे तो पाना कानी नहीं की। और आपने अपने जीवन में परिचित हो थे । अतः जब कभी वे वस्तु-स्थितिका
राजवातिक, उत्तर-पुराण आदि आठ प्रन्थों पर विचार करते थे तब कुछ समयके लिए उनकी वह भाषा वानकाए' लिखी है और सत्ताईस हजार चिन्ता दूर हो जाती थी; परन्त मोहोदयसे पुत्रके
श्लोक प्रमाण 'विद्वज्जनबोधक' नामक ग्रंथकाभी गुणोंका स्मरण आतेही वह पुनः व्यग्र हो उठते थे।
निर्माण किया है इसके सिवाय 'सरस्वतीपूजा' आदि यद्यपि उनके इस दुःखमें उनके शिष्य और मित्र
कुछ पुस्तकें भी लिखी है तथा अन्यसाधर्मी भाइयों तरह तरहसे सान्त्वना देनेका उपक्रम करते थे,
की सहायतासे एक 'सरस्वतीभवन' की स्थापना की और पंडितजी भी जब ज्ञान और वैराग्यकी विवे
थी, जिससे मांग आने पर ग्रन्थ बाहर भेजे जाते थे
इस कार्यका आप अपन गुरुकी अमानत समझत चना करते थे तब वे इतने आनन्द-विभोर होजात थे कि मानो उन्हें अपनी इष्ट वियोगावस्थाका
थे और उसका जीवनपर्यन्त तक निवोह करते रहे । भान ही नहीं है। इसी बीच उनके एक शिष्य
आपका पं० सदासुखदासजीम वि० सं०५६०७ स्व० सेठ मूलचन्द जी सोनी पंडितजीको जयपुर के मध्यवर्ती किसी समय साक्षात्कार हुआ था। अजमेर लेगये-वहां उन्हें कुछ अधिक शान्तिका पन्नालालजी रतनचन्द्रजी वैद्य दूनीवालोंके सुपुत्र थे अनुभव हुआ और कुछ समय के बाद उनकी चित्त और वे पन्नालालजीको पढ़ा लिखा कर सुयोग्य परिणति पूर्व जैसी होगई इससे उनके शिष्यों तथा
विद्वान बनाना चाहते थे, अस्तु पंडितजीके सदुपदेश मित्रों आदिको भी संतोष हुआ।
से ही संघोजीकी चित्तवृत्ति पलट गई और धर्मअजमेर में कुछ समय ठहरने के बाद पडितजीको ग्रन्थोंके अभ्यासको ओर उनका चित्त विशेषतया अपना इस पयोयके अन्त होनेका भान होने लगा उत्कंठित हो उठा, और उन्होंने प्रतिज्ञा की कि मैं अतः सेठजीने जयपुरसे उनके प्रधान शिष्य पं०
आजसे रात्रिको १० बजे प्रतिदिन आपके मकान पर पन्नालालजी संघीको अपने पास बुला लिया। उस आकर जैन धर्मके ग्रन्थोंका अभ्यास एवं परिशीलन समय पंडित सदासुख दासजीने पंडित पन्नालालजी किया करूगा। जब संघीजी अपनी प्रतिज्ञानुसार स अपनी हादिक अलाषा व्यक्त की और कहा पंडित सदासुखदासजीके मकानपर रात्रिक १० बज कि “अब मै इस अस्थायी पर्यायसे विदा होता पहुँचे तब पंडितजीने कहा कि आप बड़े घरके हैहूँ। मैंने और मुझसे पूर्ववर्ती पंडित टोडरमल्लजी सुखिया है-अत: आपसे ऐसे कठिन प्रणका निर्वाह जयचन्द्रजी और पन्नालालजी आदि विद्वानोंने कैस हा सकेगा उत्तरमे संघीजीने उस समय तो कुछ असीम परिश्रम करकं अनेक उत्तमोत्तम ग्रंथोंकी नहीं कहा पर वे नियम-पूर्वक उनके पास पहुँचत सुलभ भाषावनिकाए बनाई है और अनेक नवीन १ विद्वज्जनबोधक प्रस्तावना पृ० ६-७ ।