________________
अनेकान्त
| वर्ष १०
स्थामें उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होता चला गया। उस विभागमें कार्य करनेवाले अन्य व्यक्तियोंके वेततथा जिनवाणीके सतत अभ्यासकी साधनाने उसे नमें तिगुनी चौगुनी तक वृद्धि हो चुकी थी। आपकी
और भी सुदृढ़ बना दिया था। तेरापन्थ और वीस- इस सन्तोषवृत्तिक कुटुम्बो जनभी कायल थे, उसके पंथके विकल्पों और उनसे होनेवाली कटुताका कारण उनका बड़ा आदर करते थे। रौद्ररूप भो यद्यपि कभी कभी सामने आजाता था आपके एक शिष्य पं. पारसदासजी निगोत्या फिर भी आप अपनी चित्तवृत्तिको अस्थिर नहीं होने ने अपनो 'ज्ञानसूर्योदय नाटककी' टीकामे पंडित देते थे, यों ही सहज भावसे वीसपथके रीति-रिवा- जीका परिचय देते हुए उनके विषयमं जो विचार व्यक्त जों तथा भट्टारकाय प्रवृत्तियोंके प्रतिकूल अपने किये है उनसे पंडितजीकी आत्मपरिणति, चित्तवृत्ति मन्तव्योंका प्रचार करते थे और शुद्ध तेरापंथ और दैनिक कर्तव्यको झांकाका अच्छा पता
आम्नायको शक्तिपर पुष्ट भी करते थे। रत्नकरण्ड- चल जाता है। वे पद्य इस प्रकार हैश्रावकाचाकी टीकामें भी वीस पंथका निरसन पाया 'लौकिक प्रवीना तेरापंथ मांहि लीना, जाता है फिर भी वह उभय पंथके अनुयायियों द्वारा
मिथ्या बुद्धि करिछीना जिन बातम गण चीना है। उपादेय बनी हुई है । इसका कारण पण्डितजीकी
पढ़े ओ पढ़ावै मिथ्या अलटकू कढ़ावै, आन्तरिक विशद्धि ही है। वे कलह और विसंवाद
ज्ञान दाना देय जिन मारग बढ़ावै है। आदि अप्रशस्त कार्योमें अपना योग दान देना
दीसे घर वासी रहें घरहूतै उदासी, उचित नहीं समझते थे । शास्त्र प्रवचनम भी वस्तु
जिन मारग प्रकाशी जग कीरत जग भासी है। तत्त्वका विवेचन इम रूपसं करते थे कि श्रोता जन
कहां लौ कहीजे गुणसागर सुखदासजूके, कभी भी उनसे असन्तुष्टिका अनुभव नहीं करते थे।
ज्ञानामृत पीय बहु मिथ्या-तिस-नामी है।शा पडितजी अपने समय और पर्यायक मूल्यको सम- जिनवर प्रणीत जिन आगमे सूक्ष्मदृष्टि, झते थे इसीकारण वे अपने समयको व्यर्थ नहीं
जाको जस गावत अधावत नहिं सृष्टि है। जाने देते थे, किन्तु धमसाधनादि प्रशस्त कायोम
मंशय-तम-भान संताप-सरमान रह, उस व्यतीत करना अपना कर्तव्य समझत थे। आपके
सांचौ निज पर-स्वरूप भाषत अभीष्ट है। अनेक शिष्य थे, जो आपकी प्रेरणा और पठन
ज्ञान दान बढ़त अमोघ छ पहर जाके, पाठनकी सुविधासे सुयोग्य विद्वान बने थे। उनमे पं.
आशाका वासना मिटाई गुण इष्ट है। पन्नालालजा संघी, नाथूलालजी दोशी और पं.पारस
मुखिया सदीव रहे ऐसे गण दुलभ, दासजी निगोत्याके नाम खास तौरसे उल्लेखनीय है।
पारस, आजमाई सदासुखजू पर दृष्टि है ।।२।। आपमें सहनशीलता कूट-कूटकर भरी हुई इन पद्योंमें उल्लिखित दिन चर्यास स्पष्ट मालूम थी और चित्तवृत्तिमे अपार सन्तोष था। आजी- हाता है कि पंडितजी को ज्ञान गोष्टी अथवा तत्व विका निमित्त जो कुछ भी मिल जाता था चर्चासे कितना अनुराग था और वे अपने समयको
आप उसीसे अपना निवाह कर लते थे, पर उस व्यथ नहीं जाने दते थे किन्तु उसे स्व-परके हितअधिक की चाह-दाहमें जलना प्रायः समझते थे। साधनमें व्यतीत करते थे। उनका घरभी विद्याका कहा जाता है कि आपको राज्यकीय संस्था जिसका केन्द्र बना हुआ था और ज्ञान पिपासुजन वहाँ नामोल्लेख उपर किया जा चुका है, सिर्फ आठ या ज्ञानामृतका पान कर अपनी अज्ञानतृषाके सन्ताप दस रुपया महीना वेतन मिलता था और वह बरा- को मिटाया करते थे। इस तरह पंडितजीका छह बर चालीस वर्ष तक उसी प्रमाण में मिलता रहा- पहरका समय तो बहुत ही आनन्द और ज्ञानाराधना उसमें आपने कभी कोई वृद्धि नहीं चाही जब कि के साथ व्यतीत हो रहा था।