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किरण ७८ भद्रबाहु-निमित्तशास्त्र
२६७ अर्थ-यदि श्वेत रंगकी विजली वृक्षके ऊपर गिरे अथवा दो गृहोंके मध्यमेंसे होकर गिरे तो बहुत वायुसहित वृष्टि होती है ॥१७॥ अथ चन्द्राद्विनिष्क्रम्य विद्य न्मंडलसंस्थिता । श्वेताऽभ्रा प्रविशेदक विद्यादुकसंप्लवम् ॥१८॥
__ अथ-यदि चन्द्रमण्डलसे निकल कर श्वेत अभ्रयुक्त विजली सूर्य-मण्डलमें प्रवेश करे तो उसे बहत वर्षाको करने वाली जानो ॥१८॥ अथ सर्याद्विनिष्क्रम्य रक्ता समलिना भवेत् । प्रविश्य सोमं वा तस्य तत्र वृष्टिर्भयङ्करा ॥१६॥
अर्थ-यदि सर्यमण्डलसे निकल कर रक्त वर्णकी मलीन विद्य त् चन्द्रमण्डलमें प्रवेश करे तो वहाँ भयङ्कर वातवृष्टि होती है । अथात् भारी वायु चलता है ॥१६॥ विद्य द्विद्य द्यदा भूत्वा ताडयत् प्रविशत्तदा । अन्योन्यं वा लिखेयातां वर्ष विन्द्यात्तदा शुभम् ॥२०॥
अथ-विजली विजलीसे ही ताडित होकर एक दूसरेमें प्रवेश करतो हुई दिखाई दे तो शुभ जानना अर्थात् वृष्टि करने वाली जानना ॥२०॥ राहुणा संवृतं चन्द्रमादित्य चापसव्यतः । कुर्याद्विद्य द् यदा साधा तदा सस्य न रोहति ॥२१॥
अर्थ-राहद्वारा चन्द्रमा और सय अपसव्य मागसे ग्रहण (असित) किया गया हो और वे अभ्रसे (बादलसे ) ढके हों और उस समय उनसे विजली निकले तो धान्य नहीं उगते ॥२१॥ नीला ताम्रा च गौरा च श्वेता चाभ्रान्तर चरेत् । सघोपा मन्दघोषा वा विद्य दुदकसप्लवम् ॥२२
__ अर्थ-तील, ताम्र, गौर और श्वेत बादलोंसे विजली का संचार हो और वह भारी गर्जना अथवा थोड़ी गर्जना युक्त हो तो अच्छी वृष्टि होती है ॥२२॥ मध्यमे मध्यमं वर्ष मध्यमे अधर्म दिशेत् । उत्तमं चोत्तमे मार्गे चरन्तीनां च विद्य ताम् ॥२३॥
___ अर्थ-इस श्लोकका तात्पर्य ऐसा होना चाहिए कि आकाशके मध्यम मार्गसे गमन करनेवाली विजली मध्यम वर्षा करने वाली जानना और जघन्य मार्गसे जघन्य (अल्प) वषो करनेवाली तथा उतम मार्गसे गमन करनेवाली उत्तम वर्षा करनेवाली जानना । ॥२३॥ वीथ्यन्तरेषु ' या विद्यु च्चरतामफलं विदुः । अभीक्ष्णं दर्शयेच्चापि तत्र दूरगतं फलम् ॥२४॥
__ अर्थ-यदि विजली वीथीके (चन्द्रादिकक मार्गके) अन्तरालमें सन्चार करे तो उसका कोई फल नहीं होता । यदि बार बार दिखाई दे तो उसका फल दूर जाकर होता है ॥२४॥ उल्कावत्साधनं ज्ञयं विद्य तामपि तच्चतः । अत्राभ्राणां प्रवक्ष्यामि लक्षणं तमिवोधत ॥२५॥ ___ अर्थ-विजलियोंकी उत्त्काकी तरह सिद्धि समझना चाहिए। अब आगे अभ्रों (बादलों) के लक्षण और फलको बताते हैं उन्हें यथावत् जानना ।।२५।।
इति नेनन्थे भद्रबाहुके निमित्त विद्यु ल्लक्षणं पञ्चमोऽध्यायः ।