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अनेकान्त
[ वर्ष ०१
जैनधर्मको रक्षाकी बल्कि उसे सौहाद्रमें परिणत कर पूर्वी चालुक्योंकी शक्ति प्रवृद्धमान थी। इस प्रकार दिया ।
उपरोक्त विवेचनके उपरान्त अब विद्यानन्द एवं उनकी रचनाओंके समयको और ठीक ठीक निश्चित करनेके लिये तत्कालीन इतिहास पर भी एक दृष्टि डाल लेना आवश्यक है ।
Eat शताब्दीके मध्य में दक्षिण भारतके राजनीतिक क्षेत्रमें तीन ही प्रधान शक्तियाँ थीं-गंग, पूर्वीचालुक्य और राष्ट्रकूट। इनमें से राष्ट्रकूट शक्ति द्र तवे सर्वाधिक शक्तिशाली एवं विस्तार प्राप्त होती गई । श्रीपुरुषका राष्ट्रकूटोंके साथ निरन्तर द्वन्द्व बना रहा। सन ७६८ में राष्ट्रकूट कृष्ण प्रथमने श्रीपुरुषकी राजधानी मान्यपुरपर भी कुछ समयके लिये अधिकार कर लिया था, किन्तु श्रीपुरुषने उसे पुनः शीघ्र ही प्राप्तकर लिया था । ७७६-७७ के लगभग श्री पुरुषकी मृत्यु होगई अथवा उसने राज्य त्याग कर दिया । उसके तीन पुत्र थे- शिवमारसैगोत जो अपने पिता के समय, सन् ७५४ में हो कदुम्बुरका प्रान्तीय शासक था और उसके पश्चात शिवमार द्वितोय सैगोतके नामसे सिंहासनारूढ हुआ। दूसरा पुत्र मारसिंह दुग्गमार एयरप्प था जो अपने पिताके समय कोवलनादका प्रान्तीय शासक था । तीसरा पुत्र विजयादित्य रणविक्रम था जिसका पत्र गंगनरेश रायमल्ल सत्यवाक्य प्रथमके नामसे प्रसिद्ध हुआ ।
सन् ७२६ ई० में शिवमार प्रथम नवकामका पौत्र श्रीपुरुष मुत्तरस पृथ्वीकोंगुरिण परमानद प्रजापति मूल गंगवंशकी पश्चिमी शाखामें गंगराज्य का अधीश्वर हुआ । उसके राज्य के ५० वर्ष तकके अभिलेख मिलते हैं और इस प्रकार उसने सन् ७७६-७७ तक राज्य किया इस विषय में प्रायः समस्त विद्वान् एक मत हैं । वह परम जैन था किन्तु अन्य धर्मोके प्रति भी उदार एवं सहिष्णु था, ब्राह्मणादिकों को भी उसने दान दिये थे । साहित्य में भी उसकी रुचि थी, हस्तियुद्धप्रणालीपर उसने गजशास्त्र नामक ग्रंथ रचा था । वह भारी योद्धा था और उसका प्रायः समस्त जीवन युद्धोंमें ही व्यतीत हुआ था। उसके दीर्घ शासनकालने वैजयन्तीके चीन चालुक्य वंशका अस्त और नवोदित राष्ट्रकूट शक्तिका उदय देखा । कांचीके पल्लव भी हतप्रभ होगये थे किन्तु वेंगीमें
७७७ के लगभग जब शिवमार द्वि० गद्दीपर बैठा तो उसके भाई मारसिंहने उसके विरुद्ध विद्रोह किया, वह स्वयं राजा होना चाहता था, किन्तु सफल न हो सका और पूर्ववत् कोवलनादका हो शासक बना रहा । पिताके दीघशासनकालके कारण इस समय ये दोनों भाई भी औरङ्गजबके पुत्रोंकी भाँति प्रायः वृद्ध हो चले थे । इधर कुछ समय के लिये राष्ट्रकूट- गंग द्वन्द्व भी शान्त होगया था, जिस का कारण यह था कि राष्ट्रकूट स्वयं अन्तरकलह में
१ केवल प्रो० नरसिंहमाचर उन्हें प्राप्त एक अन्य श्रभिलेखके श्राधारपर राज्य काल की अन्तिम सीमा ७८८ ई० निर्धारित करते हैं (M. A. R - 918 para 16). किन्तु यदि उनका अनमान किसी प्रशमें ठीक भी हो तो भी ७७६ के पश्चात् श्रीपुरुषके राज्य करते रहने की कोई सभावना नहीं । यह हो सकता है कि उस वर्ष उसकी मृत्यु हुई हो और वह तक भी जीवित रहा हो, किन्तु ७७६-७७ में वह राज्यकार्यसे अलग अवश्य होगया । वह एक परम जैन था, २० वर्ष राज्य कर चुका था, श्रतिवृद्धि हो चुका था श्रतः संभवतया राज्य एवं उल गृहस्थका त्याग कर उसने अपना शेष जीवन श्रीपुर आदि किसी तीर्थस्थानमें रत रहते हुये विताया हो । इस वंशक कई अन्य राजानोंने भी ऐसा किया है नरसिंहराजपुर से प्राप्त ताम्रपत्रों में श्रीपुरुष और उल्लेख शिवमार दोनोंके द्वारा एक जैनमन्दिरको दान देनेका है (j. B. P. 143 )।
हुए थे। राट्रकूट नरेश गोविन्द द्वि० प्रभूतवर्ष विक्रमालोक (७७२ - ७७६ ) के विरुद्ध उसके भाई ध्रुव
१ गंगों की प्राचीन राजधानी तलकांड या ताक्षवनगर थी और नवींन अथवा उप राजधानी मान्यपुर थी ।
२ ]. A-X||, 6 P. 5, W.j P. 174M., uy. cg. P. 39, 55.