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आचार्य विद्यानन्दका समय और स्वामी वीरसेन
किरण ७-८ ] चागिराजको 'अशेषगंगमण्डलाधिराज' अर्थात् अपने प्रतिनिधिरूप में गगप्रदेशका शासक नियुक्त किया था जैसे कि गुचिताम्रपत्र' प्रकट हैं । इसी चागिराज के भानजे विमलादित्य चालुक्य के ऊपर से यापनोय संघके विजयकीर्त्तिके शिष्य अककीत्तिने शनि के दुष्प्रभावको नष्ट कर दिया था, इस कारण उक्त गुरुसे प्रसन्न होकर चागिराजने अपने अधीश्वर गोविन्द तृतीय जगत्तरंग प्रभूतवपेसे प्राथना करके उससे अकेकीर्त्तिका उनकी यापनीय वसदिके लिये उदार दान दिलवाया था। यह दानपत्र कदंबताम्रशासनके नामसे प्रसिद्ध है और गाविन्द के जीवनका अन्तिम अभिलेख है। चूंकि यह स्वयं गंगराजधानी तलकाडमे लिखा गया था और उसमे उसी गरके यानी संघको दान दिया गया था, वह तलकाडताम्रपत्र' भी कहलाता है, और इसकी तिथि ४ दिसम्बर सन् ८५३ हैं । डा. अल्तंकर का मत हैं कि इसके कुछ ही उपरान्त (१४ मे) गोविन्द तृतीयको मृत्यु हुई। इसमें स्पष्ट है कि =१४ ई० तक गंगवाड़पर राष्ट्रकूटोंका ही अधिकार था ।
राष्ट्रकूटोंके सम्बन्धमे हम यह देख ही चुके है कि वने ७६३ तक राज्य किया था क्योंकि उसका अन्तिम अभिलेख दौलताबादताम्रपत्र ७६३ ई०का है और गोविन्द वृत्तीयका सव प्रथम अभिलेख ७६४
पैठना है अतः गोविन्द जगत्तुंग ७६४ में =१४ तक राज्य किया । सन् ८०४ का वर्ष बहुत घटनापूर्ण रहा ! राष्ट्रकूट सिंहासनपर गोविन्द तृतीयका पड्वर्षीय बालक पुत्र अमोघवर्ष प्रथम नृपत्तुंग नाना प्रकार की बाह्य एवं आन्तरिक विप त्तियों से घिरा हुआ आरूढ़ हुआ | गंग मारसिंहकी
१ E.C. 1 2 GB. 1 EJ. V uo P. 338-31 ३ 1.A. XII P. 1
Altekat-R.T P. 69.
५ श्रमो वर्षका ताप के पथ २६ २७३० में कथन है कि उसका जन्म सरभौन ( सोलुभंजन ) में सन् ८०० की वर्षाऋतु उसके पितान राजधानीमें ही बिताई थी (E. 1. XVIII P. 346., R. T. P. 68)
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भी इसी वर्ष मृत्यु हुई और उसका पुत्र पृथ्वीपति प्रथम अपराजित उत्तरी गंगराज्यका स्वामी हुआ । शिवमारकी मृत्यु संभवतया इसके कुछ पूर्व ही राष्ट्रकूटबन्दीगृह में हो गइ थी और इसी वर्ष विजयादित्य भी मर गया अतः तलकाडमें उसका पुत्र गंगनरेश राचमल्ल प्रथम सत्यवाक्य परमानदि जिसका कि विवाह पल्लव राजकुमारीके साथ हुआ था राजा हुआ। । गाविन्द तृको मृत्युके साथ हो गंग वाडियर राष्ट्रकूटों का आधिपत्य भी समाप्त हो गया । इस प्रकार ये तीन राजपरिवर्तन एक साथ सन् ८१४-१५ में हुए और तीनों ही नवीन नरेश अमोघवर्षे प्रथम (८१५-८७६) पृथ्वीपति प्रथम ( ८१५-८५३), सत्यवाक्य प्रथम (८०५-८५० ) चिरकाल तक प्रायः समकालीन रहे ।
उपर्युक्त विवेचन एवं ऐतिहासिक तथ्यों पर ध्यान देने से सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य विद्यानन्दने ७७६-७७ के लगभग गंगराज्यकी पूर्वी सीमाके भीतर श्रीपुरके पार्श्वजिनालयको अपना स्थायी निवास स्थान बनाया और अपने गुरु नन्दिसंघके विमलचन्द्रचार्यका उत्तराधिकार संभाला उसी समय उन्होंने श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्रकी रचनाकी तत्पश्चात विद्यानन्दमहोदयको रचा और ७८४ ई० के लगभग शिवमार द्वितीयके शासनकालमें ही तत्त्वार्थश्लोकवातिकको समाप्त किया । अष्टसहस्रो की रचना उन्होंने ७८५ से ८०० के बीच किसा समय की ( संभवतया ७६०-६१ मे), युक्त्यनुशासनालङ्कार को उन्होंन ८५५ के लगभग पूर्ण किया और उसके पश्चात् आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा तथा सत्यशासनपरोक्षा की क्रमशः रचना की । सन् ८२५ के लगभग तक उनका ग्रन्थरचनाकाय समाप्त होगया, पत्रपरीक्षा एक संक्षिप्त गोरण-सो रचना है जो संभवतथा अष्टसहस्री और युक्त्यनुशासनके बीच रची गई । इस प्रकार उनका कायकाल अथवा साहित्यिक जीवन ७७५ ८५ ई० तक तो निश्चित रूपसे माना जासकता है । ७६४ सं ८०७ तक के १४-१५ वर्ष उस प्रदेशमे बड़ी अराजकता, अव्यवस्था