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एक निश्चित सुदृढ़ कार्यक्रम अपनायेगी जिससे उसकी अस्थियों में फिरसे रक्त संचार होकर नवीन जीवनका अनुभव होसके । भारतके विधानमें जनता के वे मौलिक अधिकार सुरक्षित हैं जिनके द्वारा सामाजिक, वैयक्तिक, आर्थिक, एवं राष्ट्रीय उन्नति होसकती है- उसमें सबको अपनी विचाराभिव्यक्तिद्वारा सामाजिक और राष्ट्रीय उन्नति करने का अधिकार दिया गया है। सामाजिक जोवनकी प्रधानता के साथ २ वैयक्तिक जीवनकी प्रधानता भी उसमें स्वीकार की गई है। और सबको अपनी उचित आजीविका, उचित विचार और उचित भाषण करनेका अधिकार है | एक निश्चित संगठन बनाने
अधिकार है । विधानकी मुख्य विशेषता समता है, सम्विधानमें जाति-पांति और धमके हिसाब से
ऊंच-नीच का भेद नहीं करके सबको समान अधिकार प्रदान किये गये है। इससे हमारे सामाजिक जीवन के वे विरोधी तत्व दूर होजावेंगे जिनके द्वारा भारत की आत्मा विनष्ट-सी हो चुकी थी और जिनके द्वारा राष्ट्रको अनेकों बार धक्के खाने पड़े हैं ।
भारतकी भावी नीतिपर प्रकाश डालते हुए हमारे माननीय राष्ट्रपतिने जो भाषण भारतीय संसद में दिया है उससे हमार देशका गौरव स्वयं बढ़ जाता है। उन्होंने बतलाया है कि 'हम सम्पूर्ण देशोंके साथ सहयोग करना चाहते हैं। हमारी मध्यस्थताको नीति ढुलमुल नीति नहीं अपितु वह एक दृढ़ आधारपर स्थित है जिसपर चलकर दुनिया का वातावरण शान्त किया जासकता है।' उनके भाषण के ये वाक्य कितने मामिक है कि 'अब भारतमे न कोई राजा है और न प्रजा, या तो सब राजा है या सब प्रजा । इन वाक्योंका स्मरण करते हुए हमें गांधीजी के रामराज्य की कल्पना साक्षात् दिखाई दन लगती है । राष्ट्रपतिन गणराज्य की स्थापना के उन मूल कारणोंपर प्रकाश डाला है जिससे यह महानतम कार्य हो सका है । उन्होंने बतलाया कि 'सदुद्देश्य, सत्काय और सत्यनिष्ठा ही भारतीय गणतन्त्रकं
अनेकान्त [ वर्ष १० सुदृढ़ स्तम्भ हैं ।' सचमुच हमें जितने अधिकार मिल चुके हैं उनसे कहीं अधिक हमारे ऊपर उत्तरदायित्व भी बढ़ गये है, यदि हमारे उद्देश्य और हमारे कार्य सत्यनिष्ठामं नहीं होते तो हम यह सब खो बैठेंगे। भारत शान्तिको कितना पसन्द करता है। इस बात का पता राष्ट्रपति के उन शब्दोंसे चलता है जिनमें उन्होंन कहा था कि गान्धोजीके देशमें सेनापर किये गये इतने खचसे क्या काम ? जब कि अन्यदेश 'उद्रजन' के अन्वेषणमे एड़ी-चोटीका पसीना बहा रहे है तब हमारे राष्ट्रपतिके ये विचार कितने सुन्दर और कितने आत्मबलसे पूणे है । भारत की नीति प्रतिस्पर्द्धात्मक नहीं होगी और जहांतक हो सके विश्वमैत्री में सहायक होगा ऐसी आशा आज एशिया ही नहीं विश्वके समस्त राष्ट्र वर रहे हैं । सांस्कृतिक दृष्टिसे हमारा देश विश्वके राष्ट्रोंका गुरु है यह निविवाद है। त्याग, तपस्या, श्रात्मसयम और सत्यनिष्ठापर ही भारतकी संस्कृतियों का निर्माण हुआ है और राजनीति में इन विशुद्ध संस्कृ तियों का समुचितरूप से उपयोग किया गया है । यही कारण है कि भारतकी राष्ट्रीयतामे शान्ति एवं आत्मसंयमकी एक प्रच्छन्न धारा बही है और आज उसका माग प्रकाशित होने को है ।
हमारा दायित्व है कि हम राष्ट्रनिर्माण के कार्यों में सत्यनिष्ठा के साथ निस्वार्थ भाव से लग जावें । सबसे पहले आर्थिक समस्यायें हमारे सामने है जो हमारे परिश्रमपर ही सुलझ सकती हैं । हमारा देश आज आर्थिक दृष्टिसे अत्यधिक पिछड़ा हुआ है । हमारा कर्तव्य है कि हम उसे उन्नत बनावे | राजनैतिक विकास तो सामाजिक एवं आर्थिक विकासका साधनमात्र है । देशकी मांग है अधिक परिश्रम करो और अधिक उत्पन्न करो । आर्थिक क्रान्ति हो हमारे देशको सर्वोन्नत बना सकती है और यही आज की हमारी देश सेवा है ।