________________
किरण ] आचार्यविद्यानन्दका समय और स्वामी वीरसेन
२८३ उद्धृत करते हुए किया है । क्या आश्चर्य है कि समय शंकराचार्यने पल्लवराज्यकी सीमाके भीतर ये विमलचन्द्राचार्य ही विद्यानन्दके दीदा गुरु हों शृंगेरीमें अपना प्रथम एवं प्रधान पीठ स्थापित किया
और इसी तत्कालीनकर्णाकस्थ नन्दिसंघसे ही था और उसका संचालक एवं प्रबन्धक उन्होंने अपने उनको सम्बन्ध हो । उनके नामका नन्द्यन्त पद तथा प्रधान शिष्य सुरेश्वर मिश्रको नियुक्त किया था। विमलचन्द्र के उल्लखके थोड़े समय पश्चात ही उसी यह स्थान श्रीपुरके बहुत ही निकट दक्षिणकी ओर श्रीपुर स्थानके साथ उनका प्रत्यक्ष संबंध होनेसे और अवस्थित था । उस समय कांचीके बौद्धोंने ब्राह्मण इस अनुमानके विरोधी किसी स्पष्ट प्रमाणका सद्भाव धर्मके साथ विशेष उत्पात मचा रक्खा था। अतः न होनेसे इसे ठीक ही माननेका प्रलोभन होता है। शंकर और सुरेश्वरने शृंगेरीपीठको प्रधान केन्द्र ऐसा प्रतीत होता है कि उक्त दानपत्रके कुछ ही प. बनाकर पल्लव प्रदेशके बौद्धोंके विरुद्ध जोरदार श्वात् विमलचन्द्राचार्यका या तो स्वर्गवास हो गया जिहाद छेड़ दिया और अन्ततः ७८८ ई. में उन्हें अथवा वे अन्यत्र चले गये और विद्यानन्दने स्वयं सामूहिक रूपमें कांचीसे निर्वासित होकर लंकाक उसे अपना स्थायी निवासस्थान बना लिया। और कैन्डो नामक स्थानमें जाकर बसनेपर मजबूर कर उक्त जिनालयके पार्श्वजिनेन्द्र के प्रथम दर्शनके समय दिया । किन्तु जैनोंके साथ भी यद्यपि शंकरका ही उन्होंने अपना प्रसिद्ध स्तोत्र रचा। यह घटना सैद्धान्तिक एवं दार्शनिक विरोध था तथापि उनके श्रीपुरुषके राज्यकालकी सन् ७७६-७७ की ही प्रतात साथ उसका और उसके अनुयायियोंका सामाजिक होती है। श्रीपुरशब्दमें श्रीपुरुषका नामांश आ ही मोहा द्र ही बना रहा। अतएव इससे स्पष्ट प्रतीत जाता है और किमो अन्य नरेशकी और उसमें संकेत होता है कि शृगेरी मठकी स्थापनाके प्रायः सायली भी नहीं है। उनके गुरु विमलचन्द्रका नाम भी, साथ स्याद्वादविद्यापति आचार्य विद्यानन्दने भी यदि उनके ग्रन्थोंका इस दृष्टिसे अवलोकन किया उसके समीपस्थ श्रीपुरमें अपना अडडा जमाया। जाय तो संभव है कहीं न कहीं श्लिष्टरूपमे अवश्य शंकराचार्य आदिका वहाँ जमाव ही उनके भी वहीं मिले, विशेषकर उनके प्रार्थामक महान ग्रन्थ विद्या- जमनेमे प्रेरक हुआ, और बहुत संभव है कि विद्यानन्दमहोदय में उनका उल्लेख होनेकी अधिक संभा- नन्दके महान व्यक्तित्व, उत्कृष्ट सौजन्य, अद्ध त वना है। विद्यानन्दद्वारा श्रीपरको उसो समयके विद्वत्त्व एवं उद्भट वाग्मिता एवं तार्किकताके प्रभाव लगभग अपना निवास स्थान बना लिये जानेका नेहो शंकराचार्य के विद्वष रूपी विषसे तत्कालीन समथन एक अन्य दिशास भी होता है। प्रायः इसी --------
L. Rice-Mysore (revised ed.) p (३०)न्याय कु० च. भाग १, प्रस्तावना पृ० ११३, 408.409. इन्हों पुष्पषेणके एक शिष्य वादीसिह अपर नाम परवाद मल्ल थे जो 'शत्रभय कर' कृष्ण प्रथम (७५६-७७२) के
२ देखिये संदर्भ १८।। समकालीन थे, गद्य चिन्तामणिके रचयिता और प्राप्तमी- ३ उसी नागमंगल तालुकेके कम्बदहल्ली स्थानकी मांसाके स्रष्टसहस्त्रीसे पूर्व टीकाकार थे । पात्रकेसरि, अक- शान्तिनाथ बसदिमें प्राप्त लगभग १००० वर्ष पूर्वके एक लंक और श्रीपालके साथ साथ आदि पुराणकारने इनका अभिलेखके अनुसार स्वयं शवोंने जनोंको कतिपय विशेषाभी स्मरण किया है। पार्श्वनाथ चरितमें भी इनका स्मरण धिकार प्रदान किये थे। (Report A. S. Mysore किया गया है। उद्धरवत्ती कनसेन वादिराज, अजितसेन, 1915,G. B.P. 13)स्वयं अंगेरीमें कई जैनमंदिर वाभसिह, सोमदेव शिष्य वादिराज आदि सर्व प्राचार्य थे वहाँकी पार्श्वनाथ वसदिमें प्राप्त १५६१ का जनउनसे भिन्न हैं। डा० सालतोर इन वार्दाभसिंह को विमल- अभिलेख उक्त स्थानमें प्राप्त अभिलेखोंमें सर्व प्राचीन है। चन्द्रसे अभिन्न प्रकट कर रहे हैं। (M. G.P.36) (Ilid 1916,j B. P. 135, वीं शदीमें जनों जो सम्भव है।
और शैवोंमें मेल था (6. Bno74)
इन्ही पुष्पा शत्रुभय चिन्तामणिकरा पात्रकेसान इन