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२८२ अनेकान्त
[वर्ष १० रत्न विक्रमका पुत्र गंगनरेश राचमल्ल मत्यवाक्य चलता'। यह पाश्वजिनालय श्रीरंगपुर पट्टन प्रथम परमानदि जिसका शासनकाल ८१५ से ८५० के उत्तरमें वर्तमान नानमंगल तालुकेके भीतर श्रीपुर ई० तक रहा विद्यानन्दद्वारा उल्लिखित सत्यवाक्य नामक स्थानमें विद्यमान था, और इसे पल्लवाधिराज था इसमें कोई सन्दह नहीं रहता।
की पौत्री तथा परमगुल निगुडगजकी धर्मपत्नी तत्वार्थश्लोकवातिककी अन्त्य प्रशस्तिमें उन्होंने कण्डच्छी देवीने निर्मित कराया था । देपरहल्लो इसी प्रकार 'शिव' पद प्रयोग किया है। उसमे उल्लि- ताम्रपत्र भी श्रीपुरके इम भव्य जिनालय के निर्माण खित 'शिवसुधाधारावधानप्रभुः', 'मज्जनताऽऽय:' का उल्लेख करता है । श्रीपुरुष मुत्तरसके गज्यके तथा 'तीव्रप्रतापान्वितः' आदि नाम एवं गुण-सूचक ५० वें वषका एक ताम्रशासन सन् ७७६ ई० में उक्त पदप्रयोगोंके प्रसंगसे यह स्पष्ट हो जाता है कि गंगनरेश द्वारा इसी जिनालयको उदार दान दिये उनका अभिप्राय शिवमार नामक गंगनरेशसे है जो जानेका वर्णन करता है। इसी दानपत्रमें जो उक्त श्रीपरुषके पुत्र एवं उत्तराधिकारी शिवमार द्वितोय जिनालयके निमोण के थोड़े काल पश्चात हो लिखा
गोतके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं हो सकता। गया है, नन्दिमंघक चन्द्रन्द्याचाय तच्छिष्य कमारकोठियाजीने भो कई एक अच्छी युक्तियों एवं तर्को नन्दि, तच्छिष्य कीत्तिनन्दि एवं तच्छिष्य वि द्वारा ऐमा हो सिद्ध किया है, जिसमें कछ भी अनौ- चन्द्राचार्यका भी नामोल्लेख हा है। या चित्य या असंगति नहीं दीख पड़ती।
प्रतीत होता है कि नन्दिसघके इन आचार्योंका उक किन्तु ठीक उन्हीं युक्तियों और तकौक बलपर श्रीपुर स्थानस विशेष एव स्थायी सम्बन्ध था। ये अष्टसहस्रीकी अन्त्य प्रशस्तिक दृमरे 'मध्यम) विमलचन्द्र अकलङ्कदेवके सधमा पुप्पण के विद्यापद्यकी द्वितीय पंक्तिमे प्रयुक्त 'मार' शब्दको श्री- शिष्य विमलचन्द्र ही प्रतीत होते है, जिनके कि परुषके द्वितीय पुत्र मारमिह दुगामार एयरप्प लोक- दादागुरु कुमाग्नन्दि वीरसेनस्वामीके विद्यागक त्रिनेत्रका जो कि शिवमारके पश्चात कुछ काल तक एलाचायेके भी गुरु थे, और जिनका कि उल्लेख गंगवाडिका राजा रहा था, सूचक मानने भा कोइ स्वयं विद्यानन्दने अपनी प्रमाण परीक्षामे 'तदुक्तं आपत्ति नहीं होनी चाहिये। वैसा होना विद्यानन्द कुमारनन्दिभट्टारकः' के साथ उनके कुछ श्लोक की शैलीके सवथा उपयुक्त ही है। ओर 'सत्यशासन
१ बगरप्रांतस्थ बेसिन जिलेके सिरपुर स्थानमें परीक्षा के नामसे ही सत्य शब्द होनेसे यह संभव अन्तारक्ष पाश्वनाथका एक भव्य दिगम्बर जिनालय लगहै कि उमकी रचना सत्यवाक्यक हो शासनकालमें
भग ५३००ई० का है जिसमें १४०६ का एक सस्कृत शिलालेब भी है (T W Haig-some Inses.
from Berav I.21) प्राय: विद्वानोंको इस मन्दिर विद्यानन्दका श्रीपुरपाश्वनाथम्तोत्र भी गंग- के साथ उपरोक्त श्रीपुरपाय जिनालयका भ्रम होजाया राज्यमें स्थित श्रीपुजिनालयके श्रीपार्श्वनाथको करता है। लक्ष्य करके रचा गया था इसमे कोई मन्दह नहीं है, २ B. L. Rice- My. cg. P. 39, Report क्योंकि ऐसा एक जिनालय गंगराज्यकी सोमा ।
A.S Mysore-1914. भीतर ही और स्वयं तत्कालीन गंगनरेशों द्वारा ३ Rice-Coorg Inses.-E.C.-T. थामस पजित उस समय विद्यमान था, तथा उस प्रदेशमें
फाक्स (the pollivas-jras-18:3221) ने भी एक
पल्लव राजकुमारी कुण्डब्वे द्वारा श्रारंगपुर (श्रीरगपट्टन) और उसके आस-पास दूर-दूर तक उस समय ही के उत्तरमें सन् ७७६-७७ के लगभग एक भब्य जिनालय नहीं उसके सौ-दो-सौ वष इधर-उधर भी इस नाम के निर्माणका उल्लेख किया है। के किसी अन्य जिनालयके होनका पता नहीं L. ricc-I.A.-II p. 155-161