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अनेकान्त
|वर्षे १० नसार विद्यानन्दका प्रन्थ-रचना काये ८०० के सुरेश्वर उनके प्रधान शिष्य और सहयोगी थे, वे पश्चात् ही प्रारंभ हुआ। आपका यह कथन भी इम ८४० के लगभग तक भले ही जीवित रहे हों किन्त बातकी पुष्टि करता है कि क्योंकि आदिपुराणकार ७८०-८८ के लगभग भी वह एक वयस्क साहित्यिक जिनसेनकी वृद्धावस्थाके समय ऐसा हा इसीलिए एवं कार्यकत्ता होसकते हैं। इन दोनों उन्होंने इनका कोई उल्लेख नहीं किया किन्तु हमारे तिथि प्रकट करनेवाला कोई तत्कालीन निश्चित भागामी विवेचनसे यह स्पष्ट हो जायगा कि उनका अभिलेखीय या साहित्यिक प्रमाण तो है नहीं इसके प्रन्थरचनाकाये ७७५ ई०के लगभग ही प्रारंभ हुआ अतिरिक्त, अपने पूर्व रचित ग्रन्थमें भो विद्वान होना चाहिये।
किसो ऐसे समकालीन. ममवयस्क, निकट क्षेत्रीय इस अनुमानमें केवल सुरेश्वर मिश्र ही एक तथा समान विषयके विद्व नकी किसी महत्वबाधा हैं। कोठियाजीने सुरेश्वर मिश्रका समय पूर्ण उक्ति या मतको पीछे से दुहराते समय भी स्थान जो ७८८-८२० कथन किया है वह वास्तवमें सुरेश्वर दे सकता है जिसके आम्नाय या मत परम्पराका के गुरु शंकराचार्यका है। शंकराचार्यके समय खंडन-मंडन एवं पालोवना उसका इष्ट विषय हो । सम्बन्धी जो अनेक विभिन्न मत है उनमें बहुमान्य (२) वाचस्पति मिश्रका समय ८४१ निश्चित मत ८८-८२० इ० है । और इसीपरसे श्री पी०बी० मानकर विद्यानन्द द्वारा उसकी असमालोचनाके अणेने सुरेश्वरका कायकाल ८००-८४०३० निधारित आधारपर उनको उतरावधि ८४०ई० निवारित करन किया है । विद्यानन्द सुरेश्वरके उत्तरवती तो थे ही में भी बाधा है। वाचस्पति मिश्रने उद्यातकरके न्यायनहीं किन्तु समवालीन रहत भी यदि उन्होंन सुरेश्वर वार्तिकपर अपनी तात्पर्यवृत्ति टोका लिखनेके उपरान्त के प्रन्थके उद्धारण दिये है तो उनका रचना काल ८०० जो न्यायमचीनिबंध लिखा है उसमें उसने २८ से पूर्व प्रारंभ हुआ नहीं दीख पड़ता ' परन्तु अन्य वत्मर (शक) अर्थात् सन् ८४१ ई. को तिथि दी प्रबल एवं पुष्ट प्रमाणकि विरोधम यह बाधा इसलिए है। उससे पूर्व वह तीन ग्रन्थोंकी और रचना कर नहीं खड़ी रहती कि प्रथम तो होसकता है कि विद्या- चुका था। अपने प्रथम प्रन्थमें ही उसने जयन्तभट्ट नन्दद्वारा सुरेश्वरका नगण्यसा मतोल्लेख उसी प्रकार का अपने गरुरूपमें उल्लेख किया है। अब भ्रमपर्ण सिद्ध होजाय जैसा कि वाचस्पतिमिश्रका जयन्त वाचस्पति मिश्रके चाहे प्रायः समकालोन भी हा है। दूसरे शंकराचार्य ८८ से ८२० तक अवश्य हो तथापि विद्यानन्दद्वारा उन दोनोंके उल्लेखाभावक रहे यह तो शायद कहा जासकता है किन्तु व ७८८ धारपर विद्यानन्दकी उत्तराधि ८२५ ई. से ऊपर १५.२० वर्षे पूवमे भी एक प्रतिष्ठित प्राचार्य नहीं थ, जानकी संभावना नहीं है। यह नहीं कहा जासकता। वस्तुत: ऐसा अनुमान
(:) कुमारसेनका समय जो ७५० ई. अनुमान करनेके पर्याप्त कारण हे ८८ मे ता व कांचीम बोद्धा किया गया है वह भी भ्रामक है। यह उनको के सामूहिक निकामनके प्रधान निमित्त बन थे।
पूर्वावधि तो होसकती है पर उत्तरावधि नहीं । ७८०.८ में उनको ख्याति चरम सीमाको प्राप्त थी।
७३ में हरिवंशकार जब उनका स्मरण वीरसेनक १५० केलाशचन्द्र-न्याय कु.च, भाग,प्रस्तावना। साथ माथ कर रहे हैं तो उस समय वीरसेनको
२ तत्त्वविन्दुको रमास्वामी शास्त्रा कृत भमिका । संभव है अन्य विज्ञान मुरेश्वरका समय भी ७८८-८२० भाँति कुमारसेन भी जीवित होमकते हैं बल्कि जैमा ही मानते हों' जैसा कि काठियाजीक संदमसे प्रकट
विद्यानन्दके प्रावासस्थल श्रीपुर और शंकर होता है।
२ हमारा लेख-अकलंक अनुतिक महाराज हिम सरेश्वरक शृगेरीमठमें कुछ मीलोंका ही अन्तर था। शीतब-जे.के. एच० भार० एस०।
२५. महेन्द्रकुमार-अनेकान्त २,१, पृ० ६।।