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स्याहाद [ले० पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ]
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न्यायाचार्य पं. महेन्द्रकुमारजी भारतीय दर्शनशास्त्रके अधिकारी और प्रतिष्ठित विद्वान् तथा लेखक है। हिन्दविश्वविद्यालय काशीमें प्राप बोद्धदशनके प्राध्यापक (प्रोफेसर) तथा जैनदर्शनके अनेक प्रन्थों के सम्पादक हैं। आपको विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावनाएँ भारतीय दर्शनशास्त्रके जिज्ञासुओं और विद्वानोंके लिये पढ़ने योग्य हैं। न्यायविनिश्चयविवरणकी, जो हालमें भारतीयज्ञानपीठ काशीसे मुद्रित हुआ है, प्रस्तावनामें जैनदर्शनक स्याद्वाद और अनेकान्तवादपर विस्तृत तथा महत्वका आपने विचार किया है और उन विद्वानोंकी भूल-भ्रान्तियों को दूर किया है जिन्होने अपने दर्शनग्रन्थों में जैनदर्शनके स्याद्वान और अनेकन्सवादको गलत रूपमें समझा तथा उल्लेखित किया है। प्रस्तुत लेखमें से ही विद्वानोंकी भूलोंका निरसन किया गया है और जिम वहाँसे उद्धृत करके यहां दिया जारहा है । पाठकों तथा संबद्ध दर्शनग्रन्धके लेखक विद्वानोंसे अनुरोध है कि वे इस लेखको तथा इतः पूर्व प्रकाशित 'सजयवेलहिपुत्त और स्याद्वाद' शीधक हमारे लेखको अवश्य पढ़ें।
-स. सम्पादक] जैनदर्शनने सामान्यरूपसे यावत् सत्को परि- स्याद्वाद-सुनयका निरूपण करनेवालो भाषा णामीनित्य माना है। प्रत्येक सत अनन्तधात्मक पद्धति है । 'स्यात्' शब्द यह निश्चितरूपसे बताता है। उसका पूर्णरूप वचनोंक अगोचर है । अनेकान्त है कि वस्तु केवल इसी धर्मवाली ही नहीं है उसमें अर्थका निर्दुष्टरूपसे कथन करनेवाली भाषा स्थाबाद इसके अतिरिक्त भी धर्म विद्यमान है । तात्पर्य यह रूप होती है। उसमें जिम धर्मका निरूपण होता है कि-अविवक्षित शेष धोका प्रतिनिधित्व 'स्यात्' उमके साथ 'स्यात्' शब्द इसलिये लगा दिया जाता शब्द करता है। 'रूपवान घट:' यह वाक्य भो है जिमसे पूरी वस्तु उसी धर्मरूप न ममझ ली अपने भीतर 'स्यात्' शब्दको छिपाये हुए है । इसका जाय । अविवक्षित शेष धर्मोका अस्तित्व भी उममें अर्थ है कि 'स्यात् रूपवान घटः' अर्थात् चक्षु इन्द्रियहै, यह प्रतिपादन 'स्यात' शब्दसे होता है। के द्वारा ग्राह्य होनेस या रूप गुणकी सत्ता होनेसे
स्याद्वादका अर्थ है-स्यात्-अमुक निश्चित घड़ा रूपवान है, पर रूपवान् ही नहीं है उसमें रस, अपक्षाम । अमुक निश्चित अपेक्षासे घट अस्ति ही गन्ध, स्पश आदि अनेक गुण, छोटा बड़ा आदि है और अमुक निश्चित अपेक्षाम घट नास्ति ही है। अनेक धर्म विद्यमान है। इन अविवक्षित गुण-धर्मोक स्यातका अर्थ न तो शायद है न सम्भवतः और न अस्तित्वको रक्षा करनेवाला 'स्यात्' शब्द है। स्यात्' कदाचित् दी। 'स्यात्' शब्द सुनिश्चित दृष्टिकोणका का अर्थ शायद या सम्भावना नहीं है किन्तु निश्चिप्रतीक है। इस शब्दके अर्थको पुराने मतवादी य है। अर्थात् घड़में रूपके अस्तित्वकी सूचना तो दार्शनिकोंने ईमानदारीसे समझनका प्रयास तो नहीं 'रूपवान्' शब्द दे ही रहा है पर उन उपेक्षित शेष ही किया था किन्तु आज भी वैज्ञानिक दृष्टिकी दुहाई धर्मोके अस्तित्वकी सूचना 'स्यात्' शब्दसे होती है। देनेवाले दर्शनलेखक उसी भ्रान्तपरम्पराका पोषण सारांश यह कि 'स्यात' शब्द 'रूपवान् के साथ करते आते है।
नहीं जुटता है, किन्तु अविक्षित धोके साथ । वह