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मद्रवानिमित्तशास्त्र और उसका अनुवाद
-...00....जैन विद्वान् लेखकोंने साहित्यके सभी अङ्गों-सिद्धान्त, दर्शन, नीति, कला, इतिहास, पुरातस्व, ज्योतिष, वैद्यक, काम्य, व्याकरण और मंत्रादि विषयोंपर विपुल ग्रन्थ-रचना की है और भारतीय साहित्यके अमर कोषागारको समृद्ध बनाया है। उनके साहित्यको यदि शेष भारतीय साहित्यमेंसे कुछ क्षणके लिये अलग कर दिया जाय तो भारतीय साहित्य अपूर निष्प्रभ-सा दिखेगा । अनेक पाश्चात्य विद्वानोंने जैनधर्मके साहित्यकी प्रशंसा करते हुए उसकी विपुलता और सर्वाङ्गपूर्णतापर बढ़ा हर्ष व्यक्र किया है। एक प्रख्यात भारतीय विद्वान्ने तो यहां तक अपने उद्गार प्रकट किये हैं कि भारतीय साहित्यमें जो अहिंसक एवं सात्विक श्राचार-विचारको धारा भाई है वह जैन-साहित्यको ऋणी है अथवा जैन साहित्यकी उसपर अमिट छाप है। वास्तवमें जैनाचार्योंने लोक-हितको हमेशा सामने रखा है और यह प्रयत्न किया है कि साहित्यका कोई अङ्ग अपूर्ण या विकृतरूपमें न रहे। उनके साहित्यने अहिसक-रचनामें जो योगदान दिया है वह अपूर्व है। उनके वैद्यक जैसे साहित्यमें मांस, मदिरा और मधुका भी त्याग बतलाया गया है
और जीवनको अधिक शान्त तथा सात्त्विक वितानेका उपदेश किया गया है। इससे नैन-साहित्यको सात्विकता और विशालताका कुछ अनुभव होजाता है।
साहित्यके अनेक विषयों में निमित्तशास्त्र (ज्योतिष) भी एक विषय है और जिसपर भी जैन विद्वानोंने ग्रन्थ लिखे हैं। इन्हीं ग्रन्थों में प्रस्तुत 'भद्रबाहु-निमित्तशास्त्र' है, जिसका दूसरा नाम 'भद्रबाहु-संहिता' भी है। कहा जाता है कि अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु निमित्तशास्त्रके महापण्डित थे। उन्होंने शिष्योंकी प्रेरणा और प्रश्न करनेपर उन्हें निमित्तशास्त्रका उपदेश किया था । उनका यह उपदेश अर्से तक मौखिकरूपमें चलता रहा और बहुत कासके बाद उसे लिपिबद्ध किया गया। प्रस्तुत अन्य उसी उपदेशका एकांशिक संकलन समझा जाता है। इसके कर्ता कौन हैं और इसे इसरूपमें कब निबद्ध किया गया है ? आदि बातें विचारणीय है जिनपर इस ग्रन्थके स्वतंत्र प्रकाशनके समय ही उसकी प्रस्तावनामें विचार किया जावेगा।
इस ग्रन्थका अनुवाद श्रीजवाहरलालजी जैन वैद्य परतापगढ़ (राजपूताना-मालपा) ने किया है जो इस विषयके विज्ञ और प्रमी है और जिसे उन्होंने दो प्रतियोंके प्राधारसे तैयार किया है। इसके कुछ अध्यायोंको उन्होंने अपने मनवाद सहित 'अनेकान्त में प्रकाशनार्थ कोई सात वर्ष पहले ३१ दिसम्बर १६४२ में मेजा था। किन्तु उसमें संशोधन और सम्पादनकी खास अपेक्षा होने तथा उसके लिये मुख्तारसाहवको अवकाश न मिलनेसे वह 'अनेकान्त' में अब तक प्रकाशित नहीं होसका। हाल में मुख्तारसाहबने उसके सम्पादनका भार मेरे सुपुर्द किया। फलतः उसे क्रमश: 'भनेकान्त' में प्रकट किया जारहा है । यद्यपि मूलग्रन्थ हालमें सिंघी जैन प्रन्थमाला बम्बईसे प्रकाशित होगया है किन्त अनवादके साथ वह प्रथम बार ही प्रकाशित हो रहा है। जहाँ तक हुमा, हमने अनवादकके अनुवादको भाषा-साहित्यकी दृष्टिसे सम्पादित तथा संधोधित किया है और उनकी मूल विचारणा ज्यों-को-स्यों रखी है । आशा है पाठकोंके लिये यह बाभप्रद होगा।
-दरबारीलाल कोठिया देखो, प्रन्थको पीठिका।