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भद्रकाहु-निमित्तशास्त्र
(भद्रबाहु-संहिता) हिन्दी-अनुवाद-सहित प्रथम अध्याय
नमः श्रीवर्द्धमानाय सर्वज्ञाय महात्मने । निमित्तांग-प्रकाशाय वस्तुसंज्ञासमन्विते (2) ॥
अर्थ-जो सर्वज्ञ हैं-सर्व पदाथोंके ज्ञाता हैं, महात्मा हैं-विशिष्ट गुणोंके प्रकट होनेसे उच्च आत्मा हैं, निमित्तशास्त्रके प्रकाशक हैं और वस्तुसम्बन्धी सम्यग्ज्ञान (पदार्थज्ञान) से युक्त हैं उन श्रीवर्द्धमान स्वामीके लिये नमस्कार है। ।। १॥
विमल बोध सुधाम्बुधि-चन्द्रिक गुरुपदोदयभूधर-भास्करम् ।
ललितकीर्तिमुदार-गुणालयं भजत भद्रभुजं मुनिनायकम् ॥२॥ अर्थ-जो निर्मल ज्ञानरूण अमृतसमुद्रको बढ़ानेके लिये चन्द्रमाके समान हैं, गुरुचरणरूपी उदयाचलसे उदित होनेवाले सूर्य के सदृश है तथा सुन्दर कीतिसे संयुक्त है और उदारगुणोंके भण्डार हैं उन आचार्य श्रीभद्रबाहुकी उपासना करो ॥२॥ मागधेषु पुरं ख्यातं नाम्ना राजगृहं शुभम् । नानाजन-समाकीर्ण नानागुण-विभूषितम् । ३।।
अर्थ-मगधदेशके नगरोंमे प्रसिद्ध राजगृह नामका एक श्रेष्ठ नगर है, जो नाना प्रकारके मनुष्योंसे व्याप्त है और अनेक गुणोंसे सपन्न है ।।३॥ तत्रास्ति सेनजिद्राजा युक्तो राजगुणैः शुभैः । तस्मिन् शैलेषु विख्यातो नाम्ना पाण्डुगिरिः शुभः ॥४॥ नानावृक्ष-समाकीर्णो नानाविहग-सेवितः । चतुष्पदैः सरोभिश्च साधुभिश्चोपसेवितः ॥५॥
अर्थ-उस राजगृहमें सेनजित् नामका राजा है जो राजाओंके गुणोंसे सम्पन्न है। इस राजगृहमें (पांच) पर्वतोंमें विख्यात पाण्डुगिरि नामका उत्तम पर्वत है जो अनेक प्रकारके वृक्षोंसे व्याप्त है, अनेक पक्षियोंका क्रीडास्थल है और नाना तरह के पशुओंकी विहारभूमि है तथा अनेक तालावों और ऋषियोंसे उपसेवित है ।। ४,५॥ तत्रासीनं महात्मानं ज्ञान-विज्ञानसागरम् । तपोयुक्त च श्रेयासं भद्रबाहु निरामयम् ॥६॥ • द्वादाशङ्गस्य वेत्तारं निर्ग्रन्थं सुमहायतिम् । वृतं शिष्यः प्रशिष्यैश्च निपुणं तत्ववेदिनम् ॥७॥
प्रणम्य शिरसाऽऽचार्यमूचुः शिष्यास्तदा गिरम् । सर्वेषु प्रीतिमनसो दिव्यं ज्ञानं वुभुत्सवः ॥८॥