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किरण ७८]
आचार्य विद्यानन्दका समय और स्वामी वीरसेन
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तिथिका कोई प्रतिवाद या निराकरण किमी भी विद्यानन्दके विद्यानन्दमहोदय और तत्त्वार्थश्लोकविद्वानने नहीं किया तथापि उसे स्वीकार करनेमें भी वार्तिक जैसे विशालमहत्वपूर्ण प्रन्थोंके वाक्योंको प्रायः सभी विद्वानोंने अभी तक मक अनिच्छा ही उदधत न करें। अस्त. उन विद्वानोंके विद्यानन्दसे प्रकट की है और प्रोफेमरसाहन द्वारा मान्य तिथि- कुछ पूर्ववर्ती ही होनेके कारण वैसा नहीं हुआ। को ही मान्य किये चले जाते हैं। केवल डा० ए. एन. विद्यानन्द के समयको इस प्रकार २० वर्षे आगे उपाध्येने अवश्य ही उसे स्वीकार किया प्रतीत नहीं मिले
तात नहा खिसका लेनके पश्चात् अपने एक अन्य लेख "वीर
। होता। उनका मत है कि वीरसेनकी धवला टीकाकी मेन स्वामीके स्वर्गारोहण समयपर एक दृष्टि"मे' समाप्ति जगत्तगके शासनकालमे (७६४.८०८ ई० कोटियाजाने जयधवलाके मम्पादकों आदि द्वारा के बीच) किमी समय हुई।
अनुमानित वीरसेनकी मृत्युतिथि ८.३ ई० को भो सन् १६४५ में मित्रवर पं० दरबारीलालजी
लगभग २० वर्ष आगे खिसका दिया। इस प्रसंगमें काठियाका विद्यानन्दका समय' शीर्षक एक लेख
कोठियाजीने एक पादटिप्पणीमें मेरे मतकी यह कहप्रकट हुआ था । उसमें उन्होंने अन्य अनेक विद्वान्
कर उपेक्षा कर दी कि "बा ज्योतिप्रसादने धवलाके द्वारा मान्य विद्यानन्दके समय सन् ८१६ ई. को
समय सन्बन्धमे जो नया विचार हाल में प्रस्तुत अमान्य किया था। और अपने मतकी पुष्टिम पं० किया है उसे अभी यहाँ छोड़ा जाता है। इस महेन्द्रकुमारजीके द्विपफ मतसे माग्रह विरोध करते
समयवृद्धि में कोठियाजीने यह हेतु दिया है कि हुए यह हेतु दिया था कि विद्यानन्दने अपनी तत्त्वार्थ
जयधवलाकी समाप्ति-प्रशस्तिके ३५ वें पद्यमें जिनश्लोकवार्तिकमे न्यायवार्तिकतात्पर्यवृत्तिटोकाकार
मनस्वामी कहते हैं कि “यह पुण्यशासन गुरुकी वाचस्पति मिश्रका हो उल्लेख किया है, जिन्होंने कि
आज्ञासे लिखा है। अतः वीरसेनस्वामी सन ८३७ अपना उक्त ग्रन्थ ८४१ ई० में समाप्त किया था। अत: विद्यानन्द का समय ८३५ ई० के लगभग प्रारंभ में जयधवलाकी समाप्तिके समय जीवित थे और होना चाहिये। अपने इस मतकी पष्टिमे आपने एक
उनका स्वर्गारोहण "८२३ में नहीं बल्कि जयधवला तक यह भी दिया था कि “दि विद्यानन्दका ग्रन्थ
की समाप्तिकं ममय (ई०८३७)के कुछ वर्ष बाद रचनाकाल ८१६ ए. डी. के करोब माना जाय तो
हुआ है।" और क्योंकि प्रन्थको गुरु-शिष्य दोनोंने वीरसेन स्वामी (२३ए डी के द्वारा धवला और मिलकर रचा था, दोनों ही उसकी प्रशस्ति लिखनेमें जयधवलामें तथा जिनसेनके द्वारा जयधवला साझेदार थे, गुरुने वृद्धत्वके कारण प्रशस्ति लिख
और श्रादिपराणमें विद्यानन्द या उनके नेका भार विनीत शिष्यपर छोड़ दिया, उनकी तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (८०६ से ८१० ।-डी-) आज्ञानुसार उनको अवस्थितिमे ही उन्हींने दोनोंकी आदि ग्रन्थोंके वाक्योंका उल्लख होना अनिवार्य ओरसे वह प्रशस्ति लिखो। आर सम्भव था । काइ वजह नहीं कि संकड़ा किन्तु उससे अगले ३६ वें पद्यमें स्वयं जिनसेन प्रन्थों और प्रन्थकारों तथा उनके वाक्योंका उल्लेख यह भी कहते है कि "गुरुके द्वारा विस्तारसे लिख करनेवाले वीरसेनस्वामी और जिनसेन स्वामी गये पूर्व भागको देखकर ही मैंने प्रन्थका उत्तर भाग अपनी विशाल टीकाओं-धवला और जयधवलामें लिखा है। इस कथनपरसे जयधवलाके विद्वान
Dr. Pathak's view on Anantviry. सम्पादकों तथा अन्य विद्वानोंने वह अनुमान -as Date Annals BoRI, P 164 jn. २ अनेकान्त ७, ८, पृ०६७।
१ अनेकान्त ८, ३, पृ० १४४ ।