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अनेकान्त
[वर्ष १०
मर्तिकलाकी दृष्टिसे इनका व्यवस्थित अध्ययन म्बर धातु मूर्तियाँ भी बहुत मिलती हैं जिनमेंसे कई अभी नहीं हो पाया। गुजरातके श्रीउमाकांत प्रेमचन्द बहुत विशाल है। बीकानेरके वैदोंके महावीरजीके व शांतिलाल उपाध्यायादि जैनमर्तिकलापर वर्षोंसे मन्दिरमें एक ऐसी ही विशाल परिकरवाली दि० अध्ययन कर रहे हैं पर अभी उनका अनुभव प्रकाश जैन धातु मर्ति हमारे अवलोकनमें आई है । में नहीं आया। साराभाई व मुनि कांतिसागरजीका श्वेताम्बर मन्दिरोंमें कायोत्सर्गस्थित धातुकी विशाल भी अध्ययन सराहनीय है। पर इस सम्बन्धमें शीघ्र मामिलामोसे का जितनाथ ही एक स्वतंत्र ग्रन्थ प्रकाशित होना चाहिये । एक प्रतिमाका ब्लाक जैनसाहित्य मंशोधक खं०३ अ०१ बंगाली विद्वानका अंग्रेजी ग्रन्थ मोतीलाल बनारसी- में एवं कई अन्य मर्तियों के ब्लाक जैनसत्यप्रकाश एवं दास लाहौरने प्रकाशित किया सुना है पर मैंने भारतना जनशिल्पस्थापत्य ग्रन्थादिमें प्रकाशित है। उसे देखा नहीं । जैन समाजको इस परमावश्यक दि० विद्वानों का कर्तव्य है कि वे भी अपने मूर्तिकला कार्यकी ओर शीघ्र ध्यान देना चाहिये।
व शिल्पस्थापत्यका परिचयात्मक कोई ग्रन्थ प्रकामझे श्वेताम्बर मूर्तियोंका ही अधिक परिचय है, शित करवावें। अत: उन्हींपर यहाँ प्रकाश डाला गया है वैसे दिग
प्राचार्य विद्यानन्दका समय और स्वामी कीरसेना
(ले-बा० ज्योतिप्रसाद जैन एम.ए., एल-एल.बी.)
गत दशकमें धवला टीका समन्वित षटखंडागम दकोंनेभी उसे ही मान्य किया । अनेक प्रमाणों एवं साहित्यके सुसम्पादित प्रकाशनने उक्त महाकाय युक्तियोंके आधारपर मुझे वह तिथि कुछ सदोष टीकाके प्रकांड रचयिता 'लोकविज्ञ, वाग्मी, वादि- जंची और गहन गवेषणके उपरान्त मैने उसका वृन्दारक, कविवाचस्पति, सिद्धान्त महोदधिबंधक समय सन् ७८० ई० प्रतिपादित किया। केवल श्री
आदि विशेषणोंसे जिनसेनादि उत्तरवर्ती प्राचार्यो- प्रफुल्लचन्द्रजी मोदीने मेरे मतका हल्कासा प्रतिवाद द्वारा स्मृत वीरसेन स्वामीकी ओर आधनिक विद्वानों किया था। जिसकामैंने अपनी जान पर्याप्त सन्तोका ध्यान बरबस प्राषित कर लिया। उसके पजनक समाधान तुरन्त कर दिया। इसके पश्चात् विद्वान सम्पादक प्रो० हीरालालजीने प्रथम खंडकी मेरा एक अन्य लेख स्वामी वीरसेनके गुरुजनोंके विस्तृत प्रस्तावनामें आचार्य प्रवरके समय और इति
सम्बन्धमें प्रकाशित हुआ और उससे भी मेरे उक्त वृत्ति पर यथाशक्य प्रकाश डाला और उनके द्वारा मतकी पुष्टि हुई। किन्तु यद्यपि मेरे द्वारा निर्णीत धवलाकी समाप्तिका काल सन्०२५६ ई. निधारित २ श्रीधवसका समय-अनेकान्त व०७ कि.12. किया गया।' जयधवला और महाधवलाके सम्पा
३ अनेकान्त ८,१पृ. ३७ । षटखढागम-धवलाटीका १,११,प्रस्तावना पृ०
४ अनेकान्त ८,२०७॥ ५ जना पेन्टीक्वेरी १२, पृ.