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हिंसा और सत्याग्रह
( ले०- बा० अनन्तप्रसाद जैन B. Sc., इञ्जीनियर )
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हिंसाका अर्थ यह नहीं है कि अन्यायको चुपचाप सहन किया जाय । अन्याय, अत्याचार, तिकता हिंसकवृत्ति और हिंसाके कारण होनेसे हिंसा करने कराने या बढ़ानेवाले हैं। हिंसा या हिंसा के कारणों का शमन करना, दूर करना या निवा रण करना हो अहिंसा है। जो बातें या कार्य या व्यवस्थाएँ अथवा नीतियां हिंसाको जन्म देती हों या परिपुष्ट करती हों उन्हें शमन न करनेका अर्थ है उन्हें बढ़न देना । संसारमे कोई भी बात या वस्तु एकांगी या अकेली नहीं-सब और सबकुछ एक-दूसरे से घनिष्ठपसे संबन्धित है । एक हिंसक अन्यायको चुपचाप सहन करनेका अथ होगा निकट भविष्यमे या दूर भविष्य में उसके फलस्वरूप होनेवाली बहुमुखी हिंसाको परिस्फुटित होने, फूलने फलने और फैलनेका बीज वपन करना ।
अन्याय, अनैतिकता या अत्याचार स्वयं हिंसा है, इनका विरोध करना अहिंसा है। इनके आगे किसी भी कारणवश सिर झुका लेना या इन्हे चुप-चाप बगैर किसी रोकथाम के होने देना किसो कमजोरीका चिन्ह है न कि क्षमाभाव या अहिंसाका । अहिंसाका गलत भ्रमपूर्ण अर्थ लगानेस ही आज संसार अव्यवस्थाओं एवं दुःखों का घर होरहा है।
मनुष्य कोई भी गलती करता है वह प्रायः अज्ञानके कारण ही है। अतः जानकार व्यक्ति या समाजका कर्तव्य है कि ऐसे अज्ञानसे उत्पन्न बुद्धिद्वारा किया गया कार्य या अनाचार उपदेशादि द्वारा उपयुक्त ज्ञानके प्रकाशसे दूर किया जाय – परन्तु जहां इसतरह काम न सधे वहां विरोध जरूरतके मुताबिक तीव्र या नर्म करना ही कर्तव्य है । संसार
सभीके लिए है- अकेले किसी एक व्यक्तिके लिए न है न होसकता है। सबको जीने रहने और बढ़नेका हक है। यदि कोई इसमें बाधा पहुँचाता है तो वह अनाचार या पाप या गलती करता है उसे रोकना हर एक आदमीका अपना स्वार्थ है । हम एक दूसरेके साथ २ चलकर एक-दूसरे की मदद कर-कराके ही आगे बढ़ सकते है और इसी लिए संसारकी सारी धार्मिक तथा देशोंकी अलग २ राजनैतिक व्यवस्थाएँ है ताकि हम एक दूसरेसे न टकराते हुए बाधारहित मार्ग ( Following the path of best resistance ) द्वारा चलकर अधिक से अधिक सुखशान्ति उपलब्ध कर सकें और अन्ततः उन्नति करते करते परम लक्ष्य तक पहुंचने का साधन या जरिया बनालें और पथ प्रशस्त करलें । ऐसा करके ही कोई अपने कर्तव्यका भी निर्वाह करता है, धर्मका भी साधन करता है, स्वार्थकी भी पूर्ति करता है और पुरुषार्थका भी पालन करता हुआ परमार्थको प्राप्त करता है। इसके विपरीत आचरण ही धर्ममें पाप और शासनव्यवस्थामें दंडनीय घोषित किया गया है ।
मनुष्य व्यक्तिगत या सामाजिक या सामूहिक रूपमें अज्ञान के कारण ही स्वार्थके इस असली तत्त्व को भूलकर भ्रमपूर्ण निम्न स्वार्थे या केवल अकेले पकी बातें सोचने और व्यवहार करने लगता है । यही सारे झगड़ों, संघर्षों और हिंसाओं की जड़ है । इसे विरोध या सक्रिय उपायों द्वारा रोकना ही अहिंसाका पालन करना, संसारका या व्यक्तिका सच्चा कल्याण करना और सुख-शान्तिकी वृद्धि कर नेमें सहायक होना है ।