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किरण ७८]
सञ्चो भावनाका फल होती है अतः वह पूज्य है । इसमें उन्होंने देव, को शास्त्रमें मैंने उससे पूछा-कि अब तो बतलाओ शास्त्र और गुरुके प्रति अपनी भक्ति प्रकट की है। बात क्या थी ? उसने कहा-हमारे यहां चौकाकी मेरा भी पक्का श्रद्धान है कि इस जीवका कल्याण ऐसी रूढ़ि चलो पाती है। तब मैंने कहा-'इस रूढिभक्तिसे ही हो सकता है। शास्त्रोंमें लिखा है कि- को छोड़ो, त्रसजीवोंकी रक्षा करो जिसमें बहुघात न 'एक बार वन्दे जो कोई । ताहि नरक-पशु गति नहिं हो ऐसा भोजन करो तथा चन्देवा आदि जो जीवहोई।।' जो एकबार शिखरजीके दर्शन करले उमे नरक रक्षाके साधन है उन्हें जुटाओ कोरी रूढिमें क्या
और तिर्यच गति नहीं हो सकती। इसका अर्थ है धरा ? बात उसकी समझमें आगई । कि सम्यग्दृष्टिके नरक तथा तिर्यच आयुका बन्ध एक बारको और सुनो। बैशाख सुदी पूनमको मैं होता ही नहीं है उनमें पैदा कहांसे होगा ? और शिखरजो पहुँचा। जब खुरजासे १३ को चलने जिसके भावसहित सम्मेद शिखरजीकी वन्दना लगा तब श्रीमान् सेठ मेवारामजी बोले-'इस गर्मी होगी वह सम्यग्दृष्टि होगा ही। मैं अपनी बात कह- में कैसे यात्रा करोगे ? मैंने कहा-'कौन देख पाया ता हूँ-भैया ! वन्दना करनेका फल किसीको मिले पानी वरष जाय । भैया ! जिस दिन मुझे पर्वतपर चाहे नहीं मुझे तो तत्काल मिला।
जाना था उससे पहले शामको खूब जमकर पानी ___एकबार हम दो श्रादमी शिखरजीको वन्दना वर्षा, मौसम ठण्डा होगया। मैं तीन बजे रातको कर बारह एक बजे नीचे आए । भोजनका कुछ पर्वत पर चढ़ा और सानन्द वन्दना करके लौट सामान नहीं था । दुकानदार के यहाँसे चावल आया। दूसरे दिन मनमें पाया कि परिक्रमा और
और लकड़ी लाए। वहीं धर्मशालामें एक लमेचू देना चाहिये। लोगोंने कहा-कष्ट होगा । मैंने कहारोटो बना रहा था, उसकी लकड़ी कम होगई । मुझ कष्टके लिये तो शरीर है ही फिर कब आता ?' मैं से बोला-एक लकड़ी दे दो, मैं लकड़ी उसके चौके में अपने साथी और एक भोलके साथ परिक्रमाको रख आया ।लकड़ी कुछ बड़ी थी इसलिये चौकसे चल पड़ा। उसी दिन वापिस आजाऊ इस ख्यालसै बाहर निकली रही । वह गुस्सा हुआ-बोला, 'तूने सवेरेसे गया। नीमियाघाट पहुँचा, वहां जाकर मेरी सारी रसोई बेकाम कर दी। मैं कुछ समझा भोजन किया। फिर आगे चला । कुछ दर ही चल नहीं। मैंने कहा-क्या बात है?' वह बोला-कि 'तुम हूँगा कि रास्ता भूल गया। गरमोकी ऋतु, जेठका ने यह लकड़ी चौकेके बाहर निकली रहने दी इस- महीना, ऊपरसे घाम और नीचे ततूरी । जोरकी लिये चौका अशुद्ध होगया, सब रसोई व्यर्थ गई। प्यास लगी जिससे प्राणान्त कष्ट होने लगा । भगमैंने कहा-'भैया पहले कहते तो मैं तोड़कर रख वान् पाश्वनाथकी टोंक दूरसे दिखती थी, मैंने हाथ देता।' अच्छा, यह तो बताओ तुम्हारा यह आटा जोड़कर कहा कि 'भगवन् ! आप तो मोक्ष गए, और शुद्ध है ? उसने कहा-'हां, घरका पिसा हुआ शुद्ध हम लोगोंको कष्ट छोड़ गए। न आप यहां मोक्ष
आटा है। और घी ? घी भी घरका शुद्ध है। तो में जाते न यहां हम लोग जङ्गलमें भटकते । सुनते हैं भोजन कर सकता हूँ ? उसने कहा-टां। मैंने प्रेमसे कि आप संसार-समुद्रसे तारनेवाले है पर मुझे खूब भोजन किया, मेरे साथीने भी किया। बाद में संसारसमुद्रसे अभी नहीं तरना है, अभी तो प्यास उनकी रसोईका सिलसिला लगा कर उन्हें भोजन की अग्निसे शान्त होना है। आया तो आपके दर्शन • कराया । भैया ! वन्दनाका फल किसीको मिले करनेके लिये था, पर मेरी मृत्यु होगी आर्तध्यानसे ।
चाहे नहीं, मुझे तो तुरन्त मिल गया (हंसी)। शाम- मैं आपका ही भक्त हूँ, भक्तोंपर आपको दया नहीं