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अनेकान्त
[ वर्ष १०
व्यर्थ नहीं जाती। ऊपरसे क्रिया करो, समय लगाओ और हृदयमें भक्ति न हो तो उससे क्या लाभ हो सकता है ?
कल्याणमन्दिर स्तोत्रमें कहा है कि'श्रतोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, नूनं न चेतसि मया विष्टतोऽसि भक्त्या । जावोऽस्मि तेन जनबांधव ! दुःखपात्रम्
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श्राती । दो चुल्लू पानी मिल जाय इतनेसे ही मेरी रक्षा होजायगी।' हम लोग ऐसा कह रहे थे कि वहीं पास में एक रास्ता फूटो दिखी । मैंने कहा- अब भूले तो हैं ही, चलो इमो रास्ते चलें । सो एक अध फर्लान नहीं गया हूँगा कि एक जलसे लबालब भरा हुआ कुण्ड दिखा। मुझे इतना आनन्द हुआ मानो किसी कंगलाको निधि मिल गई हो । अच्छी तरह पानी पिया। जीमें जी आया। साथी कहने लगा - 'चलो ! अभी बहुत दूर जाना है।' मैंने कहा'भाई ? अब चिन्ता किस बात की ? यहां विश्राम करलो, कल तक पहुँच ही जावेंगे' । विश्रामके बाद शाम को चला, सो भैया ! १५ मिनटमें ही मधुवन आगया । मेरा तो अटूट विश्वास है कि श्रद्धा कभी
समका फेर
यस्मात्क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशन्याः ॥' 'भगवन् ! मैंने आपका नाम सुना, पूजा की, दर्शन किया, समवसरण में भी गया पर हृदयमें आपको धारण नहीं किया। यही कारण है कि अब तक संसारमे भटक रहा हूं । बिना भावके क्या होता ?”
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'अनेकान्त' पत्रके वर्षे १० संख्या ४-५ में 'अर्थका अनर्थ' शीर्षक से पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीका एक लेख प्रकाशित हुआ है । यह लेख 'शूद्र- मुक्ति' शीर्षक से ज्ञानोदय में निकलनेवाले लेखके विरोध में लिखा गया है । लेखके प्रारम्भ में उन्होंने मेरे उस लेखकी भी चर्चा की है जिसके द्वारा मैंने आगम के आधार से यह बतलाया था कि बाह्य सम्पत्तिका मिलना और बिछड़ना कर्मका कार्य न होकर कर्मोदयमें नोकर्म है ।
इस तरह इनके प्रकृत लेखमें मुख्य विवादके विषय तीन हो जाते हैं - १. क्या बाह्य सम्पत्तिका मिलना और बिछुड़ना क्मका कार्य है ? २. क्या शूद्रमुक्ति दिगम्बर परंपरामें मान्य है ? ३. क्या एक पर्याय में गोत्र बदल सकता है ?
पण्डितजीने इन विषयोंकी यथास्थान चर्चा
की है। उनका व्यक्तिगत मत है कि ' एकको सम्पत्ति मिलना और दूसरेका गरीब होना कर्मका कार्य हैं ? दिगम्बर परंपरामे शुद्रमुक्ति मान्य नहीं और एक पयायमें गोत्र नहीं बदल सकता ।
किन्तु मेरा मन्तव्य है कि एकको सम्पत्ति मिलना और दूसरेका गरीब होना यह कर्मका काय
होर व्यवस्थाका फल है, दिगम्बर परम्परामें शूद्रमुक्ति मान्य है और " एक पर्याय में गोत्र बदल १. देखो पचसग्रहकी भूमिका |
२. देखो उनकी लिखी हुई 'जैनधर्म' पुस्तक पृष्४२६३
-३०० ।
३. देखो अनेकान्तकी पिछली किरणों में और अन्यत्र प्रकाशित हुए उनके गोत्रविषयक लेख ।
देखो षष्ठ कर्मग्रन्थकी भूमिका |
४,
२. देखो ज्ञानोदयके ४थे, वे आदि अंकोंमें प्रकाशित मेरा शुद्रमुक्ति शीर्षक लेख ।