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गुणचन्द्रमुनि कौन हैं ?
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आचार्य वादिराज ( ई० सन् १०२५ ) ने अपने न्यायविनिश्चयविवरण में एक जगह गुणचन्द्रमुनिका उल्लेख करते हुए लिखा है
'देवस्य शासनमतीच गभीरमेतत् तात्पर्यतः क इव बोद्धमतीवदक्षः । fegree areगुणचन्द्रमुनिर्न विद्यानन्दोऽनवद्यचरणः सदनन्तषीय: ॥
अर्थात् - 'यदि गुणचन्द्रमुनि, अनवद्यचरण विद्यानन्द और सज्जन अनन्तवीर्य (रविभद्र-शिष्य) ये तीन विद्वान् देव (अकलङ्कदेव ) के गम्भीर शासनके तात्पर्यका स्फोट न करते तो उसे कौन समझने में समर्थ था ?'
यहाँ वादिराजसरिने जिन साधुपुरुष गुणचन्द्र मुनिका उल्लेख किया है वे कौन है और उन्होंने कलङ्कदेव के कौन-से ग्रन्थकी व्याख्यादि की है ? शायद यह पद अशुद्ध न हो ? फिर भी इस उल्लेखसे इतना तो स्पष्ट है कि उन्हें अकलङ्कके शासन (वाङ्मय) के व्याख्यातारूपमें एक जुदा व्यक्ति जरूर होना चाहिये ।
विद्यानन्दने अष्टशतीका अष्टसहस्रोद्वारा, अनन्त वीर्यने सिद्धिविनिश्चयका सिद्धिविनिश्चयटीकाद्वारा वादिराजने न्यायविनिश्चयका न्यायविनिश्चयविवरणद्वारा और प्रभाचन्द्रने लघीयस्त्रयका लघीयस्त्रयालंकार ( न्यायकुमुदचन्द्र ) द्वारा अकलङ्कके शासन ( वाङ्मय -प्रन्थों ) का तात्पये स्फोट किया है । प्रभाचन्द्र वादिराजके उत्तरवर्ती हैं और इसलिये 'सगुणचन्द्रमुनि' पदसे प्रभाचन्द्रका तो ग्रहण नहीं किया जा सकता है । अतः इस पदका वाच्य वादिराज ( ई० १०२५) से पूर्ववर्ती कोई अन्य आचार्य १ देखो, वीर सेवामन्दिर सरसाबाको लिखित प्रतिपन्न ३८२ ।
अकलङ्कका व्याख्याकार होना चाहिये। परन्तु अब तक उपलब्ध जैनसाहित्यमें विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, वादिराज और प्रभाचन्द्र इन चार विद्वानाचार्योंके सिवाय अकलङ्कके व्याख्यातारूपमें कोई दृष्टिगोचर नहीं होता ।
यदि सचमुच में 'सगुणचन्द्रमुनि' पदसे वादिराजको गुणचन्द्रमुनि नामके विद्वानका उल्लेख करना इष्ट है जो अकललंकके किसी ग्रंथ व्याख्याकार रहे हों तो विद्वानों को इसपर विचार करना चाहिए और यह स्पष्ट करना चाहिए कि वे किस सामान्य अथवा विशेष परिचयको लिये हुए हैं तथा उन्होंने अकलङ्कके कौन-से ग्रन्थकी व्याख्या अथवा टीकादि की है एवं उनका क्या समय है ?
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रसिद्ध साहित्यअनुसन्धाता पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारका विचार है कि यहाँ 'सगुण' शब्द 'प्रभा' के अर्थमें प्रयुक्त हुआ है और इसलिए 'सगुणचन्द्र' पद से श्र. वादिराज के द्वारा उन्हीं प्रभाचन्द्रका उल्लेख किया गया है जिनका उल्लेख जिनसेनस्वामीने अपने आदिपुराण में किया है और जिन्हें 'कृत्वा चन्द्रोदयं' पदके द्वारा 'चन्द्र' के उदय ( उत्पत्ति) का कर्त्ता अर्थात् न्यायकुमुचन्द्र नामक जैनन्यायप्रन्थका, जो अकलंकदेवके लघीयस्त्रयकी टीका है, रचयिता बतलाया है। उनका मत है कि प्रमेयकमलमार्तण्डके कलां प्रभाचन्द्र और न्यायक मुदचन्द्रके कर्ता प्रभाचन्द्र भिन्न है - दोनों को अभिन्न मानना तब तक ठीक नहीं है जब तक उनकी अभिन्नताके समर्थक प्रमाण सामने न आ जायें । इस सम्बन्धमें उनका एक स्वतंत्र लेख लिखनेका विचार है ।
११-१-५०,
- दरबारीलाल कोठिया