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अनेकान्त
[वषे १०
है वहां उन्होंने 'क्योंकि' पदका आशय अपनी ओर है। मालूम पड़ता है कि इतना ही प्रचारित करनेके से जोड़कर अपना मन्तव्य सिद्ध करनेकी चेष्टा की लिए उन्होंने यह लेख लिखा है, क्योंकि उन्होंने है। अपने अभिप्रायकी पुष्टिके लिये मनुष्य क्या जिन आधारोंसे इस लेखका कलेवर बढ़ाया है नहीं करता इसका यह उदाहरण है।
उनमें किसी गंभीर अध्ययनका परिचय नहीं फिर भी पाठक यह मान सकते हैं कि कदाचित
मिलता । मैं यहां यह लिखना कर्त्तव्य समझता हूँ कि दूसरे विरोधी जन जैन श्रमणोंको परिहासमें शूद्र
- पं० जो स्वयं तो 'जैनधर्म' पुस्तकमें 'शूद्रमुक्तिको कहते हों । प्रश्न है तो मार्मिक पर इसका समाधान
दिगम्बर परम्परा नहीं मानती' इस आशयका भी उसी सर्वार्थसिद्धिसे हो जाता है। वहां वैया.
निर्मूल विधान करके जैनधर्मकी आत्मापर आववृत्यके प्रकरणमें संघ शब्दका अर्थ करते हुए
रण डाल रहे है और मुझपर 'चाहे शूद्र हो या लिखा है कि 'चातुर्वर्ण्यश्रमण निवहः संघः' इसका
अन्य कोई जो चरमशरीरी होगा उसेही मुक्ति होगी' अथे है जो गृहस्थ अवस्थामें चारों वर्णके रहे है
यह सिद्धान्ताधारसे विवेचन करनेपर भी अपने ऐसे श्रमणोंका समुदाय । इससे स्पष्ट है कि जिन- मन्तव्य भरने का आरोप कर रहे हैं, किमाश्चर्यमतः दीक्षाका अधिकार न केवल क्षत्रिय, वैश्य और परम्। ब्राह्मणको था अपितु शूद्रोंको भी था।
रही वितण्डावादकी बात, सो इसमें न हमारी अन्तमें पण्डितजीने वातावरणको उत्तेजित
रुचि है और न समय ही। न हम किसीको छेड़ना करनेकी दृष्टिसे 'पं० जी जैन समाजके प्रसिद्ध
चाहते हैं और न किसीक धमकानेसे डरते ही हैं। टीकाकार हैं, आज वे सिद्धान्त प्रन्थों की टीका कर सुधार तो जैनधर्मकी आत्मा है। अनादिकालीन रहे हैं और सर्वार्थसिद्धिकी उनकी टीका वर्णी ग्रन्थ
मिथ्यात्वका सुधार किये बिना सम्यग्दर्शन या मालासे छप रही है। यदि उनमें भी पं० जीने
व्यक्तिकी मुक्ति हो नहीं हो सकती। मैं तो यही अपने इन नवीन मन्तव्योंको इसी प्रकार भरा होगा
भावना करता हूँ कि मानवमात्र सुधारपथका अनुतो उससे जैन सिद्धन्तोंके मन्तव्योंको क्षति पहुंच
गामी बने । इसामें समाजका कल्याण और व्यक्ति
की मक्ति है। जैनाचार्योन सदा जैनधमकी इस सकती है तथा व्यर्थका वितण्डावाद खड़ा हो सकता है इसी भावनासे यह लेख लिखा गया है।' इन
आत्माकी रक्षा है। शब्दोंके साथ अपने लेखको पूर्ण किया है।
-फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, वस्तुतः यही इस लेखके लिखनेका खास लक्ष्य
बनारस।