________________
किरण ६]
प्रयचर्य
२२१
रक्खें और उसमें भी अपने विषयकी सोमा निश्चित ५००) मासिक मिलन लगे। अब पण्डितजी स्त्रीको करलें। आप लोगोंका ब्रह्मचर्य बाबा लोगोंके ब्रह्मचर्य १००) देने लगे पर वह उन्हें पहिलेको तरह ही खर्च मे कहीं अधिक प्रशंसनीय है। उनके पास तो ब्रह्म- करती रही। पण्डितजीको एक बार राजाने १०००) चर्य-विघातके साधन ही नहीं है पर आप लोग एक हजार रुपये इनाम दिये। सो पण्डितजो ५००) साधनके रहते हुए भी ब्रह्मचर्यकी रक्षा करते हैं। की अच्छो साड़ो आदि शृङ्गार-सामग्री अपनी स्त्रीके श्राप लोगोंकी इस ओर दृष्टि ही नहीं है । यदि होती लिये लाये । स्त्रीने कहा-'यह किस लिये लाये?' पण्डित तो अपने आश्रित रहनेवाली इन स्त्रियोंका मधार जीने कहा-"तुम्हारे लिये।" 'मैं क्या इसके बिना नहीं करते ? ये विलासिताकी ओर बढ़ रही है और आपको अच्छी नहीं लगती ?' 'लगती तो हो'। फिर
आप उन्हें उनके साधन जुटा रहे हैं । आप लोगों यह वेश्याओंका सामान किस लिये लाये"-"और को गोरी चमड़ी मिल जाय मानो स्वर्ग मिल गया । अच्छी लगने लगोगी" | स्त्रीने कहा-“पण्डितजी (रोषमें आकर) मेरे हाथमें सत्ता नहीं है, नहीं तो तुम दो विषयके आचार्य, न जाने तुम्हें इसमें क्या मैं आप लोगोंको एक दिनमें ठीक कर देता। मैं उस आनन्द आता ? मुझे तो खाज खुजलानेके सिवाय गुरुके पास पढ़ा है जिसको स्त्रीका हाल सुनो तो कुछ अधिक नहीं मालूम होता। एक बच्चा होगया आप दंग रह जायें।
है एक और हो जाय फिर मैं आपसे छुटी लू"। पं० ठाकरदासजीके पास में पढ़ता था। उनका या दो वर्ष बाद उसके एक बच्चा और हो दूसरा विवाह हुआ था । पण्डितजीकी उमर चालीस
गया। उसने पण्डितजोसे साफ कह दिया-"यदि वर्षकी थी और उनकी स्त्रीकी उमर सोलह वर्षकी। मझे तंग करोगे तो मैं अन्यत्र चली जाऊँगो । मैं अब वह इतनी मुन्दर थी कि देवकन्या-मी लगती थी । संयमसे रहूँगी”। पण्डितजीने भी कह दियावह जो भी वस्त्र पहिन ले उसे अच्छा लगता था । "श्रच्छा.मैं अब तम्हे बेटी मानता हूँ" और जिन्दपण्डितजीको ५०) मासिक मिलता था। उसमेंसे वे पानी अपनी स्त्रीका १०) मासिक हाथ-खर्च देते थे । स्त्री इतनी उदार थी कि दो दिनमें ही खतम कर देती- मैं उनके पास पढ़ता था। एक दिन उनकी स्त्री किसी पड़ौसीके बच्चेको कपड़ा, किसीको गल्ला बोली- 'बेटा तुम अपने हाथसे रोटी बनाते हो। मैं
आदि भेज देती। पण्डितजीने कहा-'मैं तो तुम्हें बना दिया करूं गो" । मैंने कहा-"मैं छपा पानी देता हूँ तुम यह क्या करती हो ?' वह कहती- पीता हूं । तुम्हारे यहाँ कुछ विचार नहीं" । वह 'मुझे देत तो हो न ? मैं मांगने तो नहीं गई थी, इस बोली-"मैं भी छना पानी पीने लगेंगी"। मैंने पर तो मेरा अधिकार है।' पण्डितजी चुप हो जाते। कहा-"आपके यहाँ धीवरो पानी लाती है। मैं कछ समय बाद पण्डितजीको १००) मिलने लगे। उसके हाथका नहीं पीता"। वह बोली क्या बात वे आगरा चले गए और अब वे स्त्रीको २०) मासिक है ? दो घड़ा पानी में स्वयं ले आऊँगी । मैंने कहादेने लगे, पर उसका वही हाल । दो दिनसे तीसरे "आपके यहाँबाजारका बाटा आता-मैं खाता नहीं"। दिनके लिये एक धेला नहीं बचाती। कोई कहता तो वे बोली-"मैं स्वयं पीस दिया करूंगी" | मेने उत्तर देती कि दो दिन बाद मैं मर गई तो दान करने कहा-“शामको क्या खाऊँगा ? आप लोग तो रात कौन आयगा ?
__को खाती है।" वह बोलों-अच्छा, हम लोग भी जोधपुरके महाराजा पण्डितजीपर प्रसन्न होगर। दिनको ही खा लिया करेंगे । मजबूर होकर मुझे उनके उन्होंने कहा कि-पण्डितजी, यहाँ क्या करते हो? यहाँ भोजन करना मजूर करना पड़ा। भोजन हमारे यहां चलिये । वे जोधपुर चले गये। वहां उन्हें तैयार हुआ । पण्डितजी बैठे। उनसे कुछ दूर मैं बैठा।