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अनेकान्त
[वर्ष १०
वस्त उतनी ही नहीं है उसमें अन्य धर्म भी विद्यमान जैन दर्शन स्याद्वाद सिद्धान्तके अनुसार वस्तुहैं। जब कि संशय और शायदमें एक भी धर्म नि- स्थितिके आधारसे समन्वय करता है । जो धर्म श्चित नहीं होता। जैनके अनेकान्तमें अनन्त धर्म वस्तुमें विद्यमान है उन्हींका समन्वय हो सकता निश्चित है, उनके दृष्टिकोण निश्चित हैं तब संशय है। जैनदर्शनको आप वास्तव बहुत्ववादी लिख
और शायदकी उस भ्रान्त परम्पराको आज भी आये है। अनेक स्वतंत्र सत्व्यवहारके लिये सद्रपसे अपनेको तटस्थ माननेवाले विद्वान भी चलाए जाते एक कहे जायँ पर वह काल्पनिक एकत्व वस्तु नहीं है यह रूढ़िवादका ही माहात्म्य है।
हो सकता? यह कैसे संभव है कि चेतन और अचेइसी संस्कारवश प्रो. बलदेवजी स्यातके पर्याय- तन दोनों ही एक सत्के प्रातिभासिक विवते हों। वाचियोंमें शायद शब्दको लिखकर (पृ० १७३) जैन- जिस काल्पनिक समन्वयको ओर उपाध्यायजी दर्शनकी समीक्षा करते समय शंकराचार्यकी बकालत संकेत करते है उस और भी जैन दर्शनिकोंने प्रारइन शब्दोंमें करते है कि-"यह निश्चित ही है कि म्भस दृष्टिपात किया है । परममंग्रहनयको दृष्टिसे इसी समन्वय की दृष्टिम वह पदार्थोके विभिन्न रूपों सद्रपसे यावत चेतन अचेतन द्रव्योंका संग्रह करके का समीकरण करता जाता तो समग्र विश्व में अनु. एक मत्' इस शब्दव्यवहारके होनमें जैन दाशस्यूत परमतत्त्व तक अवश्य ही पहुँच जाता। इसी निकाको कोई आपत्ति नहीं है । सैकड़ों काल्पनिक दृष्टिको ध्यानमें रखकर शंकराचार्य ने इस 'स्याद्वाद' व्यवहार होते हैं, पर इससे मौलिक तत्त्वव्यवस्था का मार्मिक अपने शारीरिक भाष्य (२, २, ३३) में नहीं की जा सकतो? एक देश या राष्ट्र अपने में प्रबल युक्तियोंके सहार किया है।" पर उपाध्याय क्या वस्तु है ? समय समयपर होनेवाली बुद्धिगत जी, जब आप स्यात्का अर्थ निश्चित रूपसे 'संशय' दैशिक एकताके सिवाय एक देश या एक राष्टका नहीं मानते तब शंकराचार्य के खण्डनका मार्मिकत्व स्वतंत्र अस्तित्व ही क्या है ? अस्तित्व जुदा जुदा क्या रह जाता है ? आप कृपाकर स्व. महामहोपा- भूखण्डोंका अपना है । उसमे व्यवहारकी सुविधाक ध्याय डा० गंगानाथमाकं इन वाक्योंको देखें-"जब लिये प्रान्त और देश मंज्ञाएं जैसे काल्पनिक है से मैंने शंकराचार्यद्वारा जैनसिद्धान्तका खण्डन पढ़ा व्यवहारसत्य है उसी तरह एक सत या एक ब्रह्म है तबसे मुझे विश्वास हुआ है कि इस सिद्ध न्तमें काल्पनिक सत् होकर व्यवहारमत्य बन सकता है बहुत कुछ है जिसे वेदान्तके श्राचार्यों ने नहीं और कल्पनाकी दौड़का चरम-बिन्दु भी हो सकता है समझा " श्री फणिभूषण अधिकारी तो और पर उसका तत्त्वसत् या परमार्थसत् होना नितान्त स्पष्ट लिखते है कि-"जैनधर्मके स्याद्वाद-सिद्धान्त असम्भव है। आज विज्ञान एटम तकका विश्लेषण को जितना गलत समझा गया है उतना किसी अन्य कर चुका है और सब मौलिक अणओंकी पृथक सिद्धान्तको नहीं । यहाँ तक कि शंकराचाय भी इस सत्ता स्वीकार करता है। उनमे अभद और इतना दोषसे मुक्त नहीं हैं। उन्होंने भी इस सिद्धान्तके प्रति बड़ा अभंद जिसमें चेतन अचेतन मूर्त अमूर्त आदि अन्याय किया है । यह बात अल्पज्ञ पुरुषोंके लिये सभी लीन होजायँ कल्पनासाम्राज्यकी अन्तिमकोटि क्षम्य हो सकती थी। किन्तु यदि मुझे कहनेका है और इस कल्पनाकोटिको परमार्थसत् न माननेक अधिकार है तो मैं भारतके इस महान विद्वानके लिये कारण यदि जैनदर्शनका स्याद्वादमिद्धान्त आपको तो अक्षम्य ही कहूँगा, यद्यपि मैं इस महषिको मूलभूत तत्त्वके स्वरूप समझानेमे नितान्त असमः अतीव श्रादरकी दृष्टिसे देखता हूँ। ऐसा जान पड़ता प्रतीत होता है तो हो, पर वह व तुसीमाका उल्लंघन है उन्होंने इस धर्मके दर्शनशास्त्रक मूल ग्रन्थोंक नहीं कर सकता और न कल्पनालोककी लम्बी दौड़ अभ्ययनकी परवाह नहीं की"
ही लगा सकता है।