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किरण ६] स्याबाद
२०३. अन्यका निराकरण करने लग जाय । बस, 'स्यात्' जो 'स्यात्' शब्द वस्तुके इस पूर्णरूप दर्शनकी याद. शब्द एक अञ्जन है जो उनकी दृष्टिको धिकृत नहीं दिलाता है उसे ही हम 'विरोध संशय' जैसी गालि होने देता और उसे निर्मल तथा पूर्णदर्शी बनाता है। योंसे दुरदुराते हैं, किमाश्चर्यमतः परम् । यहाँ धर्मइस अविवक्षितसंरक्षक, दृष्टिविषहारी, शब्दको कीर्तिका यह श्लोकांश ध्यानमें आजाता हैसधारूप बनानेवाले, सचेतक प्रहरी, अहिंसक भाव- 'यदीयं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम। नाके प्रतीक, जीवन्त न्यायरूप, सुनिश्चित अपेक्षा- अर्थात्-यदि यह अनेकधर्मरूपता वस्तुको स्वयं द्योतक 'स्यास्' शब्दके साथ हमारे दार्शनिकोंने पसन्द है, वस्तु स्वयं राजी है उसमें है, तो हम बीचन्याय तो किया हो नहीं किन्तु उसके स्वरूपका में काजी बननेवाले कौन ? जगत्का एक-एक कण इस 'शायद' संभव है, कदाचित' जैसे भ्रष्ट पर्यायोंसे अनन्तधर्मताका आकार है। हमें अपनी दृष्टि निर्मल विकृत करनेका दुष्ट प्रयत्न अवश्य किया है तथा और विशाल बनानेकी आवश्यकता है। वस्तुमें कोई किया जा रहा है।
__विरोध नहीं है । विरोध हमारी दृष्टिमें है। और इस __ सबसे थोथा तर्क तो यह दिया जाता है कि घड़ा दृष्टिविरोधकी अमृतौषधि 'स्यात्' शब्द है, जो रोगी जब अस्ति है तो नास्ति कैसे हो सकता है, घड़ा जब को कटु तो जरूर मालूम होती है पर इसके बिना एक है तो अनेक कैसे हो सकता है, यह तो प्रत्यक्ष यह दृष्टिविषम-ज्वर उतर भी नहीं सकता। विरोध है, पर विचार तो करो घड़ा घड़ा ही है प्रो. बलदेव उपाध्यायने भारतीय दर्शन (पृ. कपड़ा नहीं, कुरसी नहीं, टेबिल नहीं, गाय नहीं, १५५ ) में स्याद्वादका अर्थ बताते हुए लिखा है किघोड़ा नहीं, तात्पर्प यह कि वह घटभिन्न अनन्त "स्यात् (शायद, सम्भवतः) शब्द अस् धातुके पदार्थरूप नहीं है । तो यह कहनेमे आपको क्यों विधिलिङके रूपका तिङन्त प्रतिरूपक अव्यय माना संकोच होता है कि घड़ा अपने स्वरूपसे 'अस्ति' है जाता है। घड़ेके विषयमें हमारा परामर्श 'स्यादस्तिघटभिन्न पररूपोंसे नास्ति है । इस घड़ेमें अनन्त पर- संभवत: यह विद्यमान है। इसी रूपमें होना रूपोंकी अपेक्षा 'नास्तित्व' धर्म है, नहीं तो दुनियांमें चाहिये।" यहाँ 'स्यात्' शब्दको शायदका पयोयकोई शक्ति घड़ेको कपड़ा आदि बननसे नहीं रोक वाची तो उपाध्यायजी स्वीकार नहीं करना चाहते। सकती। यह 'नास्ति' धर्म ही घड़ेको घड़ेरूपमें कायम इसीलिये वे शायद शब्दको कोष्ठकमें लिखकर भी रखनका हेतु है। इसी 'नास्ति' धर्मकी सूचना आगे 'सम्भवतः' शब्दका समर्थन करते है। वैदिक 'अस्ति' के प्रयोगके समय 'स्यात्' शब्द द देता है। प्राचार्यों में शकराचार्यने शांकरभाष्यमें स्याद्वादको इसी तरह घड़ा एक है। पर वहो घड़ा रूप, रस, संशयरूप लिखा है इसका संस्कार आज भी कुछ गन्ध, स्पशे, छोटा, बड़ा, हलका, भारी आदि अनन्त विद्वानोंके माथेमें पड़ा हुआ है और वे उस संस्कारशक्तियोंको दृष्टिसे अनेक रूपमे दिखाई देता है या वश 'स्यात्' का अर्थ शायद लिख ही जाते हैं। जब नहीं ? यह आप स्वयं बतावें । यदि अनेक रूपमें यह स्पष्टरूपसे अवधारण करके कहा जाता है किदिखाई देता है तो आपको यह कहने में क्यों कष्ट 'घटः स्यादस्ति' अर्थात् घड़ा अपने स्वरूपसे है ही। होता है कि "घड़ाद्रव्य एक है, पर अपने गुण धर्म 'घटः स्यानास्ति'-घट स्वभिन्न स्वरूपसे नहीं ही है, शक्ति आदि की दृष्टिसे अनेक है। कृपा कर सोचिए तब संशयको स्थान कहाँ है ? 'स्यात्' शब्द जिस कि वस्तुमें जब अनेक विरोधी धर्मोका प्रत्यक्ष हो ही धर्मका प्रतिपादन किया जारहा है उससे भिन्न अन्य रहा है और स्वयं वस्तु अनन्त विरोधी धर्मोंका धोके सद्भावको सूचित करता है। वह प्रति समय अविरोधी क्रीडा-स्थल है तब हमें उसके स्वरूपको श्रोताको यह सूचना देना चाहता है कि वक्ताके विकृतरूपमें देखनेकी १ दृष्टि तो नहीं करनी चाहिये शब्दोंसे वस्तुके जिस स्वरूपका निरूपण हो रहा है