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किरण ६]
धर्म हैं । प्रत्येक धर्मका विरोधी धर्म भी दृष्टिभेद से वस्तु में सम्भव है । जैसे 'घटः स्यादस्ति' में घट है
स्याद्वाद
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भङ्ग तीन हैं तब इनके द्विसंयोगी भङ्ग भी तीन होंगे तथा त्रिसंयोगी भङ्ग एक होगा। जिस तरह चतुकोटिमें सत् और श्रमतको मिलाकर प्रश्न होता है कि 'क्या सन् होकरके भी वस्तु असत है ?' इसी तरह ये भी प्रश्न होसकते हैं कि १ क्या सत् होकर भी वस्तु अवक्तव्य है ? २ क्या असत् होकर भी वस्तु अवक्तव्य है ? ३ क्या सत् असत् होकर भी वस्तु अवक्तव्य है ? इन तीनों प्रश्नोंका समाधान मंयोगज चार अंगोंमें है । अर्थात्
अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल- भावकी मर्यादासे । जिस प्रकार घटमें स्वचतुष्टयकी अपेक्षा अस्तित्व धर्म है उसी तरह घट व्यतिरिक्त अन्य पदार्थोंका नास्तित्व भी घटमें है । यदि घटभिन्न पदार्थो का नास्तित्व घटन पाया जाय तो घट और अन्य पदार्थ मिलकर एक होजायेंगे | अतः घट 'स्यादस्ति' और ‘स्यान्नास्ति' रूप हैं । इसी तरह वस्तुमे द्रव्यदृष्टि नित्यत्व, पर्यायदृष्टिम अनित्यत्व आदि अनको विरोधा धर्मयुगल रहते है । एक वस्तुमें अनन्त समभङ्ग बनते है । जब हम घटके अस्तित्वका विचार करते तो अस्तित्वविषयक सात भङ्ग होसकते है। जैसे संजय के प्रश्नोत्तर या बुद्धकं अव्याकृत प्रश्नोत्तर में हम चार कोटि तो निश्चत रूप से देखते है - सत, असत्, उभय और अनुभय । उसी तरह गणित के हिसाब से तीन मूलभङ्गोंको मिलाने पर अधिक-से-अधिक सात अपुनरुक्त भंग होसकते हैं । जैसे घड़े के अस्तित्वका विचार प्रस्तुत है तो पहला अस्तित्व धर्म, दूसरा तविरोधी नास्तित्व धम और तीसरा धर्म होगा अवक्तव्य जो वस्तुकं पूर्ण रूपकी सूचना देता है कि वस्तु पूर्णरूपसं वचनके अगोचर है। उसके विराट् रूपको शब्द नहीं छू सकते । अवक्तव्य धर्म इस अपेक्षा है कि दोनों धर्मोको युगपत कहनेवाला शब्द संसारमे नहीं हैं अतः वस्तु यथार्थतः वचनानीत है, अवक्तव्य है । इस तरह मूलमे तीन भङ्ग है
१ स्यादस्ति घटः । २ स्यान्नास्ति घटः । ३ स्यादवक्तव्यो घटः ।
अवक्तव्य के साथ 'स्यात्' पद लगाने का भी अर्थ है कि वस्तु युगपत् पूर्णरूपमें यदि अवक्तव्य है तो क्रमशः अपने पूर्णरूपमें वक्तव्य भी है और अस्ति नास्ति आदि रूपसे वचनोंका विषय भी होती है । श्रतः वस्तु स्याद्वक्तव्य है । जब मूल
(४) अस्ति नास्ति उभयरूप वस्तु है -- स्वचतुय और परचतुष्टयपर क्रमशः दृष्टि रखनेपर और दोनोंकी सामूहिक विवक्षा रहनेपर |
(५) अस्ति वक्तव्य वस्तु है- प्रथम समय में स्वतप्रय और द्वितीय समयमे युगपत् खपरचत्प्रयपर क्रमशः दृष्टि रखनेपर और दोनोंकी सामूहिक विवक्षा रहनेपर । (६) नास्ति वक्तव्य वस्तु है - प्रथम समय में परचतुष्टय और द्वितीय समयमे युगवत् स्वपरचतप्रयकी क्रमशः दृष्टि रखनेवर और दोनोंकी सामूहिक विवक्षा रहनेपर |
(७) अस्ति नास्ति अवक्तव्य वस्तु है - प्रथम तृतीय समयमै युगपत् स्वपरचतुष्टयपर क्रमशः दृष्टि समयमे स्वचतुष्टय, द्वितीय समय मे परचतुष्टय तथा स्वनेपर और तीनोंकी सामूहिक विवक्षा रहनेपर ।
जब अस्ति और नास्तिकी तरह अवक्तव्य भी धर्म है तब जैसे अस्ति और नास्तिको मिलावस्तुका कर चौथा भङ्ग बन जाता है वैसे ही अवक्तव्य के साथ भी अस्ति, नास्ति और अस्तिनास्ति मिलकर पाँचवें, छठवें और सातवें भङ्गकी सृष्टि हो जाती हैं । इस तरह गणित के सिद्धान्त अनुसार तीन मूल वस्तुओं के अधिक से अधिक अपुनरुक्त सात ही भङ्ग हो सकते हैं । तात्पर्य यह कि वस्तु के प्रत्येक धर्मको लेकर सात प्रकारकी जिज्ञासा होसकती है,