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अनेकान्त
[वर्ष १०
कारकोंका ज्ञान होना आवश्यक है। अत: वे अनादि वे स्वाभाविक गण मंसार-अवस्थामें कमोसे आच्छा अनन्त ईश्वरमें मर्वज्ञताको भी अनादि अनन्त दित होनेके कारण विकृत हो जाते हैं । आत्माका मानत हैं। अन्य जो जीवात्मा योगाभ्यामके द्वारा स्वाभाविक ज्ञान और सुख गुण कावृत होनेके समस्त पदार्थोंका ज्ञान प्राप्त करते है--यानी सर्वज्ञ माथ ही साथ पराधीन भी हो जाता है । जिससे होते हैं वे मुक्त हो जाते हैं और मुक्त होते ही उनका ऐसा प्रतीत होने लगता है कि इन्द्रियोंके बिना श्रासमस्त ज्ञान जाता रहता है। अतः ईश्वर मुकात्मा- त्माको ज्ञान और सुख हो ही नहीं सकता । किन्तु ओमे विलक्षण है । निरीश्वरवादी दर्शनांमें बौद्ध तो ऐसा है नहीं, इन्द्रियके बिना भी ज्ञान और सुख अनात्मवादी है, सांख्य ज्ञानको प्रकृतिका धर्म मानता रहता है। अतः जसे साने को भागमें तपानेसे उसहै, अतः पुरुष और प्रकृतिका सम्बन्ध छूटते ही में मिले हुए मलके जल जाने या अलग होजानेसे मक्तात्मा ज्ञानशून्य हो जाता है । कवल एक जैन- सोना शुद्ध हो जाता है और उसके स्वाभाविक गुण दशन ही ऐसा है जो मक्क होजानेपर भी जीवकी
एकदम चमक उठते है वैसे ही ध्यानरूपी अग्निमें सर्वज्ञता स्वीकार करता है; क्योंकि उसमें चैतन्यको कर्मरूपी मैलको जला डालनपर प्रात्मा शुद्ध हो जाता ज्ञानदर्शनमय ही माना गया है।
है और उसके स्वाभाविक गण अपने पूर्ण रूपमे सर्वज्ञतापर जार-ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकाशमान हो जाते है। आत्माको कर्मरूपी मलसे शुद्ध जीवको सर्वज्ञतापर जितना जोर जनदशेनन मुक्त करके अपने शुद्ध स्वरूपमे स्थित करना ही दिया तथा उसकी मयोदाको विस्तृत किया, दूसरे जैनधर्मका चरम लक्ष्य है, उसीका नाम मुक्ति या किसी दर्शनने न तो उतना उसपर जोर दिया और मोक्ष है। प्रत्येक आत्मा उस प्राप्त करनेकी शक्ति न उसकी इतनी विस्तृत रूप-रेखा ही अंकित की। रखता है जब कोई विशिष्ट आत्मा चार घा बौद्ध त्रिपिटका में बुद्ध के समकालीन धमप्रवत्तकोंकी को नष्ट करके पूर्ण ज्ञाना हो जाता है तब वह अन्य कुछ चर्चा पाई जाती है, उनमें जनधमक अन्तिम जीवोंको मोक्षमागका उपदेश देता है। इस तरह तीर्थकर निग्गठनाथपुत्त (महावीर। की भी काफी एक ओर तो वह वीतरागी हो जाता है और दूसरो चर्चा है। उससे' पता चलता है कि उम समय और पूर्ण ज्ञानी हो जाता है । ऐसा हानेसे हो न तो लोगोंमें यह चर्चा थी कि निग्गठनाथपुत्त अपनेको उसके कथनमें अज्ञानजन्य अमत्यता रहता है । सर्वज्ञ कहते हैं और उन्हें हर समय ज्ञानदर्शन और न राग-द्वेषजन्य असत्यता रहती है। इमीसे मौजूद रहता है। यह चर्चा बुद्धके सामने भी पहुँची स्वामी समन्तभद्रन प्राप्तका लक्षण इस प्रकार थी। इससे भी उक्त धारणाकी पुष्टि होती है। किया है:
अतः यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि प्राप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञ नागमेशिना। जैनदर्शनके सर्वज्ञतापर इतना जोर देनेका कारण भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्या तता भवेत् ॥५॥ क्या है ?
-रत्नक० श्रा। उसका कारण-जैनधर्म आत्मवादी है और आप्तको नियमसे वीतरागी, सर्वज्ञ और श्रागमआत्माको ज्ञान, दर्शन, मुख, वीये आदि गुणमय मा- का उपदधा होना ही चाहिए, बिना इनकं प्राप्तता नता है। तथा उसमे गुण और गरणीकी पृथक और हो नहीं सकती।' स्वतंत्र सत्ता नहीं है । द्रव्य अनन्त गुणोंका अखण्ड यह ऊपर लिख आये हैं कि ईश्वरवादियोंने पिण्ड होनेके सिवा और कुछ भी नहीं है। आत्माके ईश्वरको सर्वज्ञ माना है. क्योंकि वह सृष्टिका रचन १ बुचर्या:पृ. २01.. .. .
यिता है, साथ ही साथ वह जीवको उसके कर्मोंका