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२१८ अनेकान्त
[वर्ष १० उद्देश्य बताते हुए उत्तराद्धेमें "इत्याहुस्तद्गुणस्तोत्रं मंस्थिति:' ही उन्हें अभीष्ट है वही आप्तमीमांमाका शास्त्रादौ मुनिपुङ्गवा" लिखा है। इसकी टीकामें मुख्य ही नहीं, किन्तु एकमात्र प्रतिपाद्य विषय है। उन्होंने "मुनिपुङ्गवाः" का अर्थ "सूत्रकारादयः" इसके बाद अन्तिम ११४वीं कारिका आजाती है किया है। अ.गे तीसरी कारिका, जो कि उक्त मंगल- जिसमें लिखा है कि हितेच्छ लोगोंके लिये सम्यक श्लोक ही है,की उत्थानिकामें भी "किं पुनस्तत्परमे- और मिथ्या उपदेशके भेदको जानकारी करानेके ष्ठिनो गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ सूत्रकाराःप्राहुः""सूत्रकार" उद्देश्यसे यह प्राप्तमीमामा बनाई। पदका उल्लेख किया है। चौथी कारिकाकी उत्थानि- आप्तमीमांसापर अष्टशतीकार भट्टाकलंकदेवने कामें उक्त सूत्रकारके लिये “भगवद्भिः" जैसे पृज्य भी इस तरहका कोई संकेत नहीं किया। उन्होंने शब्दका प्रयोग किया गया है। इससे स्पष्ट है कि आप्तमीमांका अर्थ 'सर्वज्ञविशेषपरीक्षा' अवश्य विद्यानन्दि उक्त मंगलश्लोकको तत्त्वार्थसूत्रकार किया है अतः विद्यानन्दि की उक्त उक्तिका समर्थन भगवान उमास्वामीकी ही रचना मानते है। आप्त- किसी भी स्तोत्रमे नहीं होता। फिर भी आचार्य परीक्षाके अन्तमें उन्होंने पुनः इसी बातका उल्लेख समन्तभद्रके समनिर्धारणके लिये विशेष चिन्तित करके उसमें इतना और जोड़ दिया है कि स्वामीन रहनवाले विद्वानोंने विद्यानन्दिको इस उक्तिको प्रमाण जिस तीर्थोपम स्तोत्र (उक्त मंगलश्लोक) को मीमांसा मानकर और उसके साथमें अपनी मान्यताको (कि की विद्यानन्दिने उसीका व्याख्यान किया। यह उक्त मंगलश्लोक आचार्य पूज्यपादकृत मर्वामिद्धिका स्पष्ट है कि "म्वामिमीमांसित" से विद्यानन्दिका मंगलाचरण है तत्त्वार्थसूत्रका नहीं) संबद्ध करके आशय स्वामो समन्तभद्रविरचित आप्तमीमांसास लिख ही तो दिया-' हो, पर स्वामी ममहै । अर्थात् वे ऐसा मानते हैं कि स्वामी समन्तभद्र न्सभद्रके बारे में अनेकविध ऊहापोहके पश्चात् मुझको की प्राप्तमीमांसा भी उक्त मंगलश्लोकके आधारपर हो अब अतिस्पष्ट होगया है कि वे पूज्यपाद दवनन्दिक रची गई है। किन्तु विद्यानन्दिके इस कथनकी पनि पूर्व तो हुए ही नहीं' । 'पूज्यपादके द्वारा स्तुत प्राप्तक की बात तो दूर उसका संकेत तक भी आप्तमीमांसा समर्थनमें ही उन्होंने आप्रमीमांमा लिखी है यह से नहीं मिलता और न किसी अन्य स्तोत्रस ही वि- बात विद्यानन्दने प्राप्त परीक्षा तथा अष्टसहस्रीमे द्यानन्दिकी बातका समथन होता है। यद्यपि स्वामी सवथा स्पष्टरूपसे लिखी है।' यह कितना साहमपूर्ण समन्तभद्रने अपने आप्तको 'निर्दोष' और 'युक्ति- कथन है। प्राचार्य विद्यानंदने तो पूज्यपाद या उनकी शास्त्राविरोधिवाक' बतलाया है तथा निर्दोष' पदस सवाथसिद्धि टीकाका उल्ल ख तक नहीं किया। प्रत्युत "कर्मभूभृत्भेतृत्व" और "युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्” श्रामपरीक्षामें उक्त मंगलश्लोकको स्पष्टरूपसे सत्रपदसे सर्वज्ञत्व उन्हें अभीष्ट है यह भी ठीक है, दोनोंदी कारकृत बतलाया है और अष्टमहस्रीके प्रारम्भमें सिद्धि भी उन्होंन की है। किन्तु उनकी सारी शक्ति नि:श्रयसशास्त्रस्यादी...... मुनिभिः संस्तुतेन आदि तो "युक्तिशास्त्राविरोधवाक्त्व" के समर्थनमें ही लगी लिखकर स्पष्टरूपस 'मोक्षशास्त्र-तत्त्वार्थसत्रका है । उनका प्राप्त इसलिये आप्त नहीं है कि वह निःश किया है । पता नहीं पं० सुखलालजी जैसे कर्मभूभृतभेत्ता है या सर्वज्ञ है। वह तो इसोलिये दूरदर्शी बहुश्रुत विद्वानने ऐसा कैसे लिख दिया । हो प्राप्त है कि उसका 'इष्ट' 'प्रसिद्ध' से बाधित नहीं सकता है परनिर्भर होने के कारण उन्हें दसरोंने ऐसा होता। अपने प्राप्तकी इसी विशेषता (स्यावाट) को ही बतलाया हो, क्योंकि पं. महेन्द्र कुमारजी न्यायादशाते-दशोते तथा उसका समर्थन करते-करते व चायन न्यायकमदचंद्र भाग २ की प्रस्तावना में 40 ११३वीं कारिका तक जा पहुँचत है जिसका अन्तिम , 'श्र, लकग्रन्थक्रया के प्राक्कथन में। चरण है-"इति स्याद्वादसंस्थितिः।" यह 'स्याद्वाद. २१. २५-२६ ।