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२०६ अनेकान्त
विर्ष १० सकता (वक्तव्य) है ? नहीं, स्याद् अ- वक्तव्य है। परलोक न है और न नहीं है।" ।
५ स्यादस्ति' क्या यह वक्तव्य है? नहीं, संजयके परलोक, देवता, कर्मफल और मुक्तिके 'स्याद् अस्ति' अवक्तव्य है।
सम्बन्धके ये विचार शतप्रतिशत अनिश्चयवादके ६ स्याद् नास्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, है। वह स्पष्ट कहता है कि-'यदि मैं जानता होऊँ 'स्याद् नास्ति' प्रवक्तव्य है।
तो बताऊँ ।" संजयको परलोक मुक्ति आदिके ७'स्याद् अस्ति च नास्ति च' क्या यह वक्तव्य स्वरूपका कुछ भी निश्चय नहीं था, इसलिये उसका है ? नहीं, 'स्यादस्ति च नास्ति च' प्रवक्तव्य है। दर्शन वकौल राहुलजीके मानवकी सहज बुद्धिको
दोनोंके मिलानेसे मालूम होगा कि जैनोंने संज- भ्रममें नहीं डालना चाहता और न कुछ निश्चयकर यके पहिलेवाले तीन वाक्यों (प्रश्न और उत्तर दोनों) भ्रान्त धारणाओंकी पुष्टि ही करना चाहता है। को अलग करके अपने स्यद्वादको छह भंगियाँ बनाई तात्पर्य यह कि संजय घोर अनिश्चयवादो था। हैं और उसके चौथे वाक्य 'न है और न नहीं है। बद्ध ओर संजय-बुद्धने "लोक नित्य है', को जोड़कर 'स्याद' भी प्रवक्तव्य है, यह सातवाँ अनित्य है।.नित्य-अनित्य है .न नित्य न अनित्य भंग तैयार कर अपनी संप्तभंगी पूरी की।' है'; लोक अन्तवान है', नहीं है , है नहीं है', न ___इस प्रकार एक भो सिद्धान्त (= वाद) को है न नहीं है'; निर्वाणके बाद तथागत होते है', स्थापना न करना जो कि संजयका वाद था, उसीको नहा होते', होते-नहीं होते', न होते न नहीं होते ; संजयके अनुयायिओंके लुप्त होजानेपर जैनोंने जीव शरीरसे भिन्न है', जीव शरीरसे भिन्न नहीं अपना लिया और उसकी चतभंगी न्यायको सप्त- है" माध्यमिकवृत्ति पृ०४४६) इन चौदह वस्तुओंभंगीमें परिणत कर दिया।"
को अव्याकृत कहा है। मज्झिमनिकाय (२२।३) में राहुलजीने उक्त सन्दर्भमें सप्तभंगी और स्याद्वा- इनकी संख्या दश है । इसमें आदिके दो प्रश्नोंमें दके स्वरूपको न समझ कर केवल शब्दसाम्यम एक तीसरा और चौथा विकल्प नहीं गिना गया है। मये मतकी सृष्टि की है । यह तो ऐसा ही है जैसे इनके अन्याकृत होनेका कारण बुद्ध ने बताया है कि चोरसे "क्या तुम अमुक जगह गये थे ? यह कि इनके बारेमें कहना सार्थक नहीं, भितुचर्या के पूछने पर वह कहे कि नहीं कह सकता कि गया लिए उपयोगी नहीं, न यह निर्वेद, निरोध, शान्ति या था" और जज अन्य प्रमाणोंसे यह सिद्ध कर दे कि परमज्ञान, निर्वाणके लिये आवश्यक है। तात्पर्य चोर अमुक जगह गया था। तब शब्दसाम्य देखकर यह कि बुद्धकी दृष्टिमें इनका जानना मुमुक्षुके लिये यह कहना कि जजका फैसला चोरके वयानसे आवश्यक नहीं था। दूसरे शब्दोंमें बुद्ध भी संजयनिकला है।
की तरह इनके बारेमें कुछ कहकर मानवकी सहज संजयलट्टिपुत्तके दर्शनका विवेचन स्वयं राहुल- बुद्धिको भ्रममें नहीं डालना चाहते थे और न भ्रान्त जीने (पृ० ४६१) इन शब्दोंमें किया है"यदि आप धारणाओंको पुष्ट करना चाहते थे। हाँ.. पूछे-'क्या परलोक है? तो दि मैं समझता होऊँ अपनी अज्ञानता या अनिश्चयको साफ साफ शब्दोंकि परलोक है तो आपको बतलाऊँ कि परलोक है। में कह देता है कि यदि मैं जानता होऊँ तो बताऊँ, मैं ऐसा भी नहीं कहता वैसा भी नहीं कहता तब बुद्ध अपने जानने न जाननेका उल्लेख न करके दूसरी तरहसे भी नहीं कहता । मैं यह भी उस रहस्यका शिष्योंके लिये अनुपयोगी बताकर नहीं कहता कि वह नहीं है । मैं यह भी नहीं कहता अपना पोछा छुड़ा लेते हैं। किसी भी तार्किकका यह कि वह नहीं नहीं है। परलोक नहीं है। परलोक प्रश्न अभी तक असमाहित ही रह जाता है कि इस नहीं नहीं है। परलोक है भी और नहीं भी है। अव्याकृतता और संजयके अनिश्चयवादमें क्या