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अनेकान्त
[ वर्ष १०
जगतमें जितने 'सत्' है उतने बने रहेगे। उनमेसे विभाव परिणमन-राग-द्वेष-मोह-अज्ञानरूप दशाएँ एक भी कम नहीं हो सकता, एक दूमरेमें विलीन होती रहती हैं । जब यह जीव अपनी चारित्रप्रसानहीं हो सकता। इसी तरह न कोई नया 'मत्' धनाद्वारा इतना समथे और स्वरूपप्रतिष्ठ हो जाता उत्पन्न हो सकता है। जितने हैं उनका ही आपसी है कि उसपर बाह्य जगत्का कोई भी प्रभाव न पड़ संयोग वियोगोंके आधारसे यह विश्व जगत् सके तो वह मुक्त होजाता है और अपने अनन्त चैतन्य. (गच्छतीति जगत् अर्थात् नाना रूपोंको प्राप्त होना) में स्थिर हो जाता है । यह मुक्त जीव अपने प्रतोबनता रहता है।
क्षण परिवर्तित स्वाभाविक चैतन्य में लीन रहता है। तात्पर्य यह कि-विश्वमें जितने सत् है उनमेंसे ।
. फिर उसमें अशुद्ध दशा नहीं होतो । अन्ततः पुद्गल न तो एक कम हा मकता है और न एक बढ़ सकता
परमाणु ही ऐसे है जिनमें शुद्ध या अशुद्ध किसी है। अनन्त जड परमाणु, अनन्त श्रात्माएं, एक
भो दशामें दूमरे संयोगके आधारसे नाना आकृ. धर्मद्रव्य, एक अधमेद्रव्य, एक श्राकाश और असंख्य
तियाँ और अनेक परिणमन संभव हैं तथा होते कालाणु इतने सत् हैं। इनमें धर्म,अधर्म, आकाश और
र रहते है । इस जगत् व्यवस्थामें किसी एक ईश्वर
" काल अपने स्वाभाविकरूपमें सदा विद्यमान रहते हैं ।
जैसे नियन्ताका कोई स्थान नहीं है, यह तो अपने उनका विलक्षण परिणमन नहीं होता। इसका अर्थ अपने संयोग-वियागोंसे परिणमनशील है। यह नहीं कि ये कूटस्थ नित्य हैं किन्तु इनका प्रति- प्रत्येक पदार्थका अपना सहज स्वभावजन्य प्रतिक्षण जो परिणमन होता है वह सदृश स्वाभाविक क्षणभावी परिणमनचक्र चालू है। यदि कोई दूसरा परिणमन ही होता है। श्रात्मा और पदगल ये दो संया। आ पड़ा और उस द्रव्यने इसके प्रभावको द्रव्य एक दूमरेको प्रभावित करते हैं। जिस समय आत्मसात् किया तो परिणमन तत्प्रभावित हो श्रात्मा शुद्ध हो जाता है उस समय वह भी अपने जायगा, अन्यथा वह अपनी गतिसे बदलता प्रतिक्षण भावी स्वाभाविक परिणमनका ही स्वामी जायगा । हाइड्रोजनका एक अणु अपनी गतिसे रहता है। उसमें विलक्षण परिणति नहीं होती। प्रतिक्षण हाइडोजनरूपमें बदल रहा है । यदि जब तक आत्मा अशुद्ध है तब तक ही इसके परिण- आक्साजनका अणु उसमें आजुटा तो दोनोंका जल मनपर सजातोय जोवान्तरका और विजातीय पद रूप परिणमन हो जायगा । वे एक बिन्दरूपसे गलका प्रभाव आनेसे विलक्षणता आती है। इसकी
सदृश संयुक्त परिणमन कर लेगें । यदि किसी नानारूपता प्रत्येकको स्वानुभवसिद्ध है । जड
वैज्ञानिकके विश्लेषणप्रयोगका निमित्त मिला तो पुद्गल ही एक ऐसा विलक्षण द्रव्य है जो सदा व दोनों फिर जुदा जदा भी हो सकते हैं। यदि सजातीयसे भी प्रभावित होता है और विजातीय अग्निका सयोग मिल गया भाप बन जायंगे। चेतनस भी। इसी पद्गल द्रब्यका चमत्कार आज यदि सांपके मुखका सयोग मिला विषबिन्द हो विज्ञानके द्वारा हम सबके सामने प्रस्तत है। इसीके जायेगे। तात्पर्य यह कि यह विश्व साधारणतया हीनाधिक संयोग-वियोगोंके फलस्वरूप असंख्य पुद्गल और अशुद्ध जोवके निमित्त-नैमित्तिक
आविष्कार हो रहे हैं। विद्य त, शब्द आदि इसीके सम्बन्धका वास्तविक उद्यान है। परिणमनचक्रपर रूपान्तर हैं, इसीको शक्तियां है । जीवको अशुद्ध दशा प्रत्येक द्रव्य चढ़ा हुआ है। वह अपनी अनन्त इसीके संपर्कसे होती है । अनादिसे जीव और योग्यताओं के अनुसार अनन्त एरिणमनोंको क्रमशः पद्गलका ऐसा संयोग है जो पर्यायान्तर लेनेपर भी धारण करता है। समस्त 'सत्' के समुदायका नाम जीव इसके संयोगसे मुक्त नहीं हो पाता और उसमें लोक या विश्व है। इस दृष्टिसे अब आप लोकके